________________
६८]
[ शा० वा समुच्चय-स्त०४ श्लोक ३८
अत्र ब्रूमः-नैयायिकाऽस्मिन् नयवाददीपे पतन् पतङ्गस्य दशा नु मा गाः ।
बौद्धस्य बुद्धिव्ययज कुकीर्तिविमृत्यरं कज्जलमम्य पश्य ||१|| तथाहि-अभावस्य लायवात क्लृप्ताधिकरणस्वभावत्वे सिद्ध तत्र सप्रतियोगिकत्वं कल्प्यमानं तवाभाववृत्त्यभावेऽन्यप्रतियोगिकत्वमिव तत्काले तद्बुद्धिजनितव्यवहारविषयत्वादिरूपं न बाधकम् ।
न चाधिकरणस्वरूपत्वेऽननुगमो बाधकः, तथा सत्यभावाभावस्थापि प्रतियोग्यात्मक
प्रभाव और अधिकरण के भेद के सम्बन्ध में नैयायिकों ने जो तर्फबद्ध पूर्वपक्ष प्रस्थापित किया है उसके प्रतिवाद की भूमिका में प्रवेश करते पहले व्याख्याकार सावधान करते है कि नय वाव के प्रवीप में व्यर्थ झम्पात करके उन्हे पतन के जैसी विनाश दशा को प्राप्त नहीं होना चाहिये, जब कि बुद्धि के अपव्यय से उत्पन्न व अपयश को बढ़ाने वाली बौद्ध वादीयों को कालिमा, प्रत्यक्ष उपलब्ध है ॥१॥
(अभाव-अधिकरण अभेदवादी जनों का प्रतिवाद) नैयायिक के उक्त सिद्धान्त के विरोध में जैन विद्वानों का प्रतिपक्ष यह है कि प्रभाव का अधिकरण अन्य प्रमाणों के बल पर क्लप्त है-प्रसिद्ध है। अत एव अधिकरण में प्रतीत होने वाले प्रभाव को तत्स्वरूप (अधिकरण स्वरूप) मानने में लाघव है।।
भूतलादि अधिकरण में प्रतीत होने वाले धाभाव को भूतलादि स्वरूप मानने पर मूतलादि में सप्रतियोगिकरव को कल्पना करनी होगी, किन्तु इस कल्पना से किसी अतिरिक्त पदार्थ का अस्तित्व नहीं प्रसक्त होता। क्योंकि भूतल में घटामात्र को अधिकरणता अथवा घटामाव में भूतल की प्राधेयता को बुद्धि के समय जो 'भूतलं घटामाववत्' अथवा 'भूतले घटाभाव:' यह व्यवहार होता है वह घटज्ञान से उत्पन्न होता है। इस प्रकार भूतल में घटज्ञान से उत्पन्न उक्त व्यवहार को जो विषयता है वही भूतल में घटप्रतियोगिकरव है। घटप्रतियोगिकत्व उक्त विषयता से अन्य कोई वस्तु नहीं है। प्रतः भूतल में सप्रतियोगिकत्व की कल्पना प्रभाव और अधिकरण के ऐक्य में बाधक नहीं हो सकती। तथा इसे बाधक के रूप में नंयायिक द्वारा उद्भावित मो नहीं किया जा सकता क्योंकि, नैयायिक भो प्रभाव में रहने वाले अभाव को अधिकरण स्वरूप मानते हैं । जैसे, घटामाव में विद्यमान पटामाय भेद घटाभावस्वरूप होता है। इसलिये घटाभाव में पटामावप्रतियोगित्व की कल्पना उन्हें भी करनी होती है । तथा यह पटाभाव-प्रतियोगिकत्व उनके मत में भी 'घटाभावो न पटामाव:' इस प्रतीतिकाल में होने वाला पटामावस्वरूप प्रतियोगी का ज्ञान उससे उत्पन्न जो उक्त व्यवहार की विषयता, उस से अन्य नहीं होता। प्रत: अमाव के प्रभावात्मक एवं मावात्मक दोनों प्रकार के अधिकरण में सप्रतियोगिकत्व की कल्पना में कोई अन्तर न होने से प्रभाव मात्र को अधिकरण स्वरूप मानना हो पुक्तिसङ्गत है।
(अभाव-प्रधिकरण अभेद में बाधक का निराकरण) यदि यह कहा जाय कि-"अमाव को प्रधिकरण स्वरूप मानने में अननुगम होगा अर्थात् घटामावस्व की कल्पना करने से विभिन्न अधिकरणों के साथ घटाभावत्व के अनेक संबन्धों को प्रसवित