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श्या० क० टीका और हिन्दी विवेचना ]
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अपि च एतादृशानन्तप्रतियोगिज्ञानानामिन्द्रियसम्बद्ध विशेषणता रूपाऽऽलोकादीनां पृथगनन्त हेतु - हेतुमद्भावकल्पनापेक्षया लाघवादधिकरणस्यैव घटाभाववश्वेन ग्रहे क्लृप्तविशिष्ट - वैशिष्ट्यबोधस्थलीय मर्यादया निर्वाहः किं न कल्प्यते !, अधिकरणस्वरूपाभावमात्रग्रहे इष्टापत्तेः, अभावत्वस्य च संप्रतियोगिकत्वेन प्रतियोगिग्रहं विनाऽग्रहात्, 'भाषाभावरूपं जगत्' इत्युपदेश सहकृतेन्द्रियेण पथरागत्ववत् तद्ग्रहेऽपीष्टापचेर्वा ।
( प्रभाव - अधिकरण भिन्नता पक्ष में कल्पनागौरव)
अभाव और प्रधिकरण के परस्पर भेद के विरुद्ध यह भी एक युक्ति है यदि अभाव अधिकरण सेभित्र माना जायगा तो एक अधिकरण में प्रतीत होने वाले घटपटादि प्रनम्त प्रभावों को सूतलाधि रूप एक प्रधिकरण से भिन्न मानना होगा और उन प्रभावों में एक प्रभाव के प्रतियोगों के ज्ञानसे ग्रन्य प्रभाव का ज्ञान तो हो नहीं है इसलिये तत्तदभावज्ञानमें अनन्त तत्प्रतियोगीज्ञान को कारण मानना होगा। तथा प्रनन्त प्रभाव के साथ अनन्तइन्द्रियसम्बद्ध विशेषणता सन्निकर्ष को भी कारण मानना होगा । रूपवान् अधिकरण में ही प्रभाव का चाक्षुष प्रत्यक्ष होता है इसलिये प्रभाव के बा
प्रधिकरणगत रूप को कारण मानना होगा। इसी प्रकार श्रालोकाभावमें भी तत्तदभाव का ग्रहण नहीं होता इसलिये तत्तवनाथ के चाक्षुषग्रह में प्रालोक को भी कारण मानना पड़ेगा। तो इस प्रकार प्रभाव को प्रधिकरण से मिल मानने पर प्रभावबुद्धि और प्रतियोगीज्ञानादि में अनन्त कार्य-कारण भाव की कल्पना करनी होगी । यह कल्पना घटाभाव और अधिकरण में अभेद मानने की अपेक्षा घश्यन्त गौरवप्रस्त है।
(श्रभेद पक्ष में कल्पनालाघव)
अधिकरण और प्रभाव के प्रभेद पक्षमें लाघव है । जैसे, 'भूतलं घटाद्यभाववत्' इस प्रकार की बुद्धिमें घटाविज्ञान को पृथक कारण मानने की श्रावश्यकता नहीं होगी, क्योंकि यह बुद्धि प्रभावांशमें विशिष्टवैशिष्टचावगाही है धौर विशिष्टवैशिष्ट्घावगाही शोध के प्रति विशेषणतावच्छेदकप्रकारक विशेषणज्ञान को कारणता सिद्ध है अतः इसी कार्य-कारण भाषके बलसे घटादि की प्रज्ञानदशामें घटाभावादिरूप से प्रधिकरणज्ञान की उत्पत्ति की प्रापत्ति का परिहार हो जायेगा । अतः इस मत में प्रभावज्ञान में प्रतियोगिज्ञानादि की पृथक् कारणता की कल्पना नहीं करनी पड़ेगी। अभाव और अधिकरण के अभेद पक्षमें यवि यह प्रापत्ति दो जाय कि- घटादिज्ञानके प्रभाव में भी मूतलादिज्ञान की सामग्री रहने पर घटाद्यभाव का ज्ञान हो जायेगा तो यह मापत्ति दोषरूप नहीं है। क्योंकि घटादिक ज्ञानदशायें अधिकरणस्वरूपमात्र से घटावि प्रभाव का ज्ञान इष्ट ही है। एवं घटमान भूतलादिरूप प्रधिकरणज्ञान की प्रापत्ति नहीं दी जा सकती, क्योंकि प्रभावत्व सप्रतियोगिक है. श्रत एव प्रभावश्व का ज्ञान जब होगा तब उसमें विशेषणविषया प्रतियोगी का मान प्रवश्य होगा, प्रसः तद्विशिष्टविषयक बुद्धिमें तज्ज्ञान काररण होनेसे प्रतियोगीतान के बिना अभावस्य ज्ञानको आपत्ति नहीं हो सकती ।
दूसरी बात यह है कि भूतल प्रौर सूतल में घटाभावत्य नानकी जो प्रापत्ति
घटाभाव को अभिन्न मानने पर घटकी प्रज्ञानदशामें मी दी जाती है उसे इष्टापति के रूप में स्वीकार किया जा