________________
स्या० का टीका और हिन्दी विवेचना ]
[८७
मूलम्-तत्सत्वसाधक तन्न तदेव हि तदा न यत् ।
अत एवेदमित्यं तु नव तस्गेश्ययोगतः ॥४२॥ पर आह-तत्सत्त्वसाधक-तद्वयक्त्युःपादकम् , ता-कारसम् , जसले रिशक्षाकिर मचं, तत्कारणव्यक्तित्वेन पूर्वावधित्वस्य तत्कार्यव्यक्तित्वेन चोत्तरावधित्वस्य मंभवात् । न चैवं गौरवम् , यस्तुतोऽर्थम्य तथान्वादिति । अत्रोत्तरम्-न-नैतदेवम् , तदेव-विवक्षितकार्यसत्त्वम् , तदाकारणकाले न, यद्-यस्मात् , असत्त्वाद् न तत्र हेतुन्यापार इत्याशयः । पराह-यत एवं कार्य प्रागसत् , अत एवेदं कारणस्य तत्सव साधकत्वम् , इत्थं तु-घटमानं तु, सत आका• शादेवि माधकत्वानुपपत्तेः । अत्राह-म वै नेतदेवम् , सर्वथाऽसति तस्मिन 'तत्सत्वसाधकं तत्' इत्यत्र 'तम्य' इत्यर्थायोगात, सर्वथाऽसति शशशङ्गादाविव षष्ठया अप्रयोगात् ॥४२॥
हो सकती। अर्थात् उसके लिये ऐसा कोई पदार्थ नहीं माना जा सकता जिससे उसकी उत्पत्ति हो सके । क्योंकि जो वस्तु जिसमें विद्यमान नहीं हैं वह उस व्यक्ति की यदि अवधि (उत्तराधि) मानी जाएगी अर्थात् उस कारण से यदि उस अविद्यमान (प्रसत) उत्तराधिरूप कार्य की उत्पत्ति मानी जायेगी, तो सबसे सबको उत्पत्ति का प्रतिप्रसङ्ग होगा। क्योंकि सभी कार्यका असत्त्व सर्वत्र कारणों के लिए समान हैं। इसलिये उत्तराधि रूप कार्य को कारण में कथञ्चित् विद्यमान मान कर हो उससे उसकी उत्पत्ति के नियम को उपपन्न किया जा सकता है ॥४१॥
(पूर्वावधि-उत्तरावधि की कल्पना निरर्थक ) ४२ वी कारिका में बौद्ध को प्रोर से पुन: असत् कार्य के समथन की दूसरी युक्ति प्रस्तुत कर उसका खण्डन किया गया है । कारिका का प्रयं इस प्रकार है
बौद्ध का यह कहना है कि मो जिस कार्य का कारण होता है वही उसके सत्त्व का साधकउत्पादक होता है । तस्कार्य कारणत्व को ही तत्कार्योत्पादन शक्ति कहो जाती है. इस प्रकार तत्कार्यकारणत्व हो तत्कार्य के पूर्वावधित्व कर नियामक है, अर्थात् जिस व्यक्ति में जिस कार्य का कारणत्व होता है यही उस कार्य की पूर्वावधि होता है, उसी पूर्वायधिसे उसकी उत्पत्ति होती है । जो जिस व्यक्ति का कार्य होता है वह उस व्यक्ति का उत्तराधि होता है। जो जिसका उत्तराधि होता है उसोको उससे उत्पत्ति होती है । इसलिये कार्य को उत्पत्ति के पूर्व अत्यन्त असत् मानने परमी प्रयधि का सर्वथा प्रभाव होनेसे सबसे सबको उत्पति का प्रसार नहीं हो सकता। क्योंकि सबमें सबकी कारणता नहीं होती। इस कल्पना में कोई गौरव नहीं है क्योंकि कार्यकारणभूत वस्तु की यही वास्तविक स्थिति है।
इस कथन के उत्तर में ग्रन्यकार का यह कहना है कि बौद्ध का उक्त कन समीचीन नहीं हो सकता । क्योंकि, कारणकालमें कार्य की सत्ता न होनेपर उसके सम्बन्ध में कारण का कोई व्यापार नहीं हो सकता, क्योंकि असत् के सम्बन्ध में किसोका कोई व्यापार उपलब्ध नहीं होता।
-
-
---