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[ शा.वा समुफचय स्त० ४-लो० ४२
अथ सन्वं न तावत् सत्तासम्बन्धः, व्यक्तिव्यतिरेकेण विशददर्शने तदनवमासात दृश्याऽदृष्टौ चाभावसिद्धेः । न च 'सत् मत्' इति कल्पनाबुद्धया तदध्यवसायः, तत्रापि बहिःपरिस्फुटव्यक्तिस्वरूपान्तर्नामोल्लेखाध्यवसायव्यतिरेकेण सत्तास्वरूपाप्रकाशनात् । सत्ताया अपि सत्तान्तरयोगेन सत्वेऽनवधानाचन ! नापि यसपट! * सत्व , स्वप्नावस्थावगतेऽपि पदार्थास्मनि स्वरूपसद्भाचरात् सत्त्वप्रसक्तेः, परिस्फुटमंवेदनाचमासनिधित्वात् स्वरूपस्य संनिहितत्वेने व तदनुभवात , 'अप्सदिदमनुभूनम् ' इति स्वप्नोत्तरप्रतीतेः ।
( असत् के लिये ही कारण व्यापार का होना असंगत है ) इस उत्तर के प्रतिवाद में बौद्ध का पुनः यह कहना है कि यतः कार्य उत्पत्ति के पहेले असत् होता है इसलिये उसके सत्त्व का साधन करने के लिये कारण का व्यापार होना सङ्गत होता है । यदि वह असत् न होता सो कारण का व्यापार ही निरर्थक हो जाता । जैसे, सत् प्राकाशादि की सत्ता के साधन के लिये कोई व्यापार नहीं होता।
इसके उत्तरमें मूलग्रन्धकार का यह कहना है कि बौद्ध का यह तर्क भी समीचीन नहीं है। क्योंकि, कार्यको उत्पत्ति के पूर्व सर्वथा असत् मानने पर 'कारण उसके सत्त्व का साधन होता है यह कहना ही सम्भव न हो सकेगा। क्योंकि 'उसके सत्त्व' इस प्रयोग में सत्त्व शब्द के सानिधान में पूर्व में कार्यपरक 'उस शब्द के उत्तर होने वाली षष्ठो विभक्ति का संबंध रूप अर्थ सम्भव न होने से शब्द के उत्तर षष्ठी का प्रयोग उसी प्रकार प्रसङ्गत होगा जिस प्रकार शंग शब्द के सन्निधान में कार्यपरक शश शब्द के उत्तर षष्ठी का प्रयोग प्रसङ्गत होता है ।।४२।
"सत्त्व शब्द के सन्निधान में प्रसत् कार्य बोधक पद के उत्तर षष्ठी का प्रयोग सङ्गत नहीं हो सकता-" इस कथन के विरुद्ध बौद्ध की और से ४३ वी कारिका में एक विस्तृत आशंका व्यक्त की गयो है जिसका उत्तर का० ४४ में दिया जायगा।
(बौद्ध के द्वारा सत्त्व अर्थात् सत्तासंबन्ध' इस अर्थ का खण्डन ) बौद्ध का यह अभिप्राय है कि सत्त्व को सत्ता सम्बन्ध रूप नहीं माना आ सकता क्योंकि शानमें व्यक्ति से भिन्न सत्ता का भान नहीं होता और यदि सत्ता दृश्य होकर भी प्रदृष्ट होगी तो दृश्याऽदर्शन यानी योग्यानुपलब्धि से उसका प्रभाव सिद्ध हो जायेगा। ____ 'इदं सत्' 'इदं सत्' इस प्रकार की कल्पना बुद्धि से सत् शब्दसे उल्लिख्यमान बुद्धि से भिन्न किसी सत् वस्तु प्रतीत होती नहीं, अतःअतिरिक्त सत्ता को सिद्धि नहीं हो सकती। क्योंकि उषत अद्धि होने पर भी सत्ता के किसी ऐसे स्वरूप का भान नहीं होता जो 'सत्' इस नाम का उल्लेख करने वाले प्रध्यवसाय से भिन्न वस्तुसत् हो । सत् इस नामके अनुरोध से भी सत्ता का अस्तित्व सिद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि-नाम भी वस्तु के स्वरूप में ही अन्तर्भूत हो जाता है क्योंकि वस्तु के साथ ही उसका मी बहि. रिन्द्रिय सापेक्ष स्फुट प्रत्यक्ष होता है। इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि यदि पदार्थ के साथ सत्ता सम्बन्ध हो पदार्थ का सत्त्व होगा तो सत्ता का भी सत्त्व सत्ता सम्बन्ध से हीस्वीकार करना होगा और इसके लिये मूल सत्ता से अतिरिक्त सत्ता की कल्पना करनी होगी, क्योंकि प्रारमाश्रय के भय से
क यहां सत्त्व का अर्थ है मद्वयवहारविषयत्व ।