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स्या का टीका-हिन्दीविवेचना ]
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किन्तु अर्थक्रियाकारित्वमेव तत् । तथाचाऽविद्यमानाया अपि व्यक्तेः स्वरूपतः सत्त्वाद् न 'तस्य' इत्यनुपपत्तिः । न हि तदा तत्सत्त्व एव तत्सम्बन्धव्यवहारः, अतीतघटज्ञानेऽतीतघटसम्बन्धित्वेन व्यवहारस्य सर्वसिद्धत्वात् । न च श्रृङ्गाग्राहिकया तत्कायव्यक्तिहेतुत्वाग्रहादनुपपत्तिः, घटार्थिप्रधृतौ घटजातीयहेतुनाज्ञानस्यैव प्रयोजकत्वात् , विशिष्य हेतुतया च प्रतिनियतवस्तुव्यवस्थितेरेवोपपादनात् , इत्याशयवान् पर आहउस सत्तामें भी सत्ता का सम्बन्ध सम्भव नहीं हो सकता । इसी प्रकार उस सत्ता का सत्त्व भी सत्ता सम्बन्ध रूप ही होगा, प्रतः उसके लिये मी अतिरिक्त सत्ता की कल्पना करने पर अनवस्या का प्रसङ्ग होगा।
( वस्तु स्वरूप से ही सद्रूप नहीं ) वस्तु को जैसे सत्ता के सम्बन्ध से सत् नहीं माना जा सकता, उसी प्रकार उसे स्वरूपतः भी सत् नहीं माना जा सकता। क्योंकि, यदि वस्तु स्वरूपतः सत् होगी तो स्वप्नावस्था में जो पदार्थ ज्ञात होता है उसका भी अपना कुछ स्वरूप होने के कारण उसमें भी सद्रूपता को प्रापत्ति होगी । अर्थात् स्वप्नदष्ट पदार्थ का भी स्वरूप मानना युक्ति से सिद्ध होता है, क्योंकि वह भी स्फुट संवेदनारमक बोध से गृहोत होता है। इसीलिए सन्निहितरूप में ही उसका अनुभव होता है। यदि यह कहा जाय कि-'स्वप्न में विखाई देने वाला पदार्थ असनिहित होता है प्रत एव नि:स्वरूप होता है क्योंकि स्वरूप को कल्पना सन्निहित में ही होती है तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि इस उक्ति में कोई प्रमाण नहीं है । प्रत्युत स्वप्नावस्था के प्रनन्तर यह प्रतीति होती है कि हमें असद्वस्तु हो सन्निहित रूपमें अनुभूत हुई है। इस प्रतीति के अनुरोध से यह सिद्ध है कि स्वप्नावस्था में अनुभूत होनेवालो वस्तु सन्निहित होती है और असत् होती है। सन्निहित होने के नाते उसका स्वरूप मानना आवश्यक होता है और उस स्वरूप मानने के कारण उसे सत नहीं माना जाता, क्योंकि असत् ही वस्तु सन्निहित रूपमें स्वप्नावस्था में अनुभूत होती है । यही बात स्वप्न के उत्तर कालमें होनेवाली प्रतीति से सिद्ध है ।
(सत्त्व का स्वरूप अर्थ क्रिया कारित्व कैसे ?-बौद्ध) श्रत : विवश हो कर पदार्थ के सत्त्व को अर्थ-क्रियाकारित्व कार्योत्पादकत्व रूप ही मानना होगा। फलतः अविद्यमान वस्तु का भी जब स्वरूप होता है तब उसको स्वरूपात्मक सत्ता होने के कारण सत्त्व शब्द के सन्निधान में उस व्यक्ति के बोधक पद के उत्तर षष्ठी के प्रयोग को अनुपपत्ति नहीं हो सकती । क्योंकि यह आवश्यक नहीं है कि जिसकाल में जिस वस्तु का स्वत्व हो उस काल में ही उसके सम्बन्ध का व्यवहार हो । क्योंकि प्रतीत घटके ज्ञानमें उस ज्ञानकालमें अविद्यमान भी प्रतीतघट के सम्बन्ध का व्यवहार सर्वसम्मत है ।
(तत्कार्यार्थी को तत्कारणनिष्ठ कारणता का ज्ञान अपेक्षित नहीं) यदि यह शङ्का की जाय कि-"पदार्थों में शृङ्ग ग्राहिका रोलि से, अर्थात् 'अमुक कार्य व्यक्ति में प्रमुक कारण व्यक्ति हेतु है। इस प्रकार का ज्ञान सम्भव न होनेसे उक्त षष्ठो प्रयोग को अनुपपत्ति
# यहाँ सत्त्व का अर्थ है अस्तित्व और वह है विकल्यान्यन नविषयत्वरूप ।