________________
[ शा. वा. समुचय स्त-४ श्लोक-४३
मृलं-वस्तुस्थित्या तथा तवत्सदनन्तरभावि तत्।
नान्यत्ततश्च नाम्नेह न तथास्ति प्रयोजनम् ॥४३॥ वस्तुस्थित्या-आर्थ न्यायमाश्रित्य तथा तत्-कार्यसत्त्वसाधकम् तत् कारणम् । कुतः इत्याह यद्-यस्मात् तदनन्तरभावि-प्रकृतकारणानन्तरभावि, तत्-प्रतिनियतमेव कार्यसत्रम् नान्यदु-नान्यादृशम् । ततश्चेह विचारे, नाम्ना =अमिधानेन 'तथे नि विवक्षितजननस्वभावमित्येवम्भूते ] न प्रयोजनमस्ति, अतदायत्तत्याद् वस्तुसिद्धेः, शृङ्गग्राहिकया तद्ग्रहम्य चाप्रयोजकत्वादिति भावः ।। ४३ ।। अत्रात्तरम् --
बनी रहेगी क्योंकि उत्पत्ति के पूर्व अविद्यमान कार्य के स्वरूप में तदर्थबोधक पदोत्तर षष्ठी प्रयोग के प्रति कारणता का ज्ञान नहीं है। क्योंकि विद्यमान वस्तु के बोधक पद के उत्तर में ही षष्ठी विभक्ति का प्रयोग इष्ट है"-किन्तु यह ठीक नहीं है। क्योंकि तत्कारण के ग्रहण में तत्कार्यार्थी को। वत्ति के प्रति तत्कारण व्यक्तिमें तत्कार्य व्यक्ति की कारणता का ज्ञान कारण नहीं होता अपि तु तत्कारणजातीय में तरकार्यजातीय को कारणता का ज्ञान कारण होता है । अन्यथा, नये कार्य को उत्पन्न करने के लिये नये कारण को ग्रहण करने में लोकसिद्ध प्रवृत्ति का लोप हो जायेगा । क्योंकि जो व्यक्ति किसी कारणव्यक्ति से भविष्य में उत्पन्न होने वाली है उसको कारणता का ज्ञान जसको उत्पत्ति के पूर्व सम्भव नहीं हो सकता । फलत: 'सामान्य रूप से स्वरूपार्थक या स्वरूपवान अर्थ के बोधक पद के उत्तरवर्ती षष्ठीविभक्ति के प्रयोग में स्वरूप कारण है। इस ज्ञान से हो सत् शब्द के सन्निधानमें असत् कार्यबोधक पद के उत्तर षष्ठी का प्रयोग हो सकता है। क्योंकि उत्पत्ति काल में अविद्यमान वस्तु का भी स्वरूप होता है। यदि उसका कोई स्वरूप न होगा किन्तु शशशृङ्ग के समान सर्वथा निःस्वरूप होगा तो भविष्य में भी उसको उत्पति का सम्भव नहीं हो सकता।
(विशेष कार्य-कारण भाव मानना जरूरी है ) यदि इस पर यह शङ्का को जाय कि-"जब नये कार्य के लिये नये कारण के ग्रहण की प्रवृत्ति सामान्य कार्यकारण भाव से ही सम्भव होती है तो विशेष कार्यकारण भाव की कल्पना निराधार हो जाती है"-यह ठीक नहीं है । क्योंकि अमुक कारण व्यक्ति से अमुक कार्य व्यक्ति को ही उत्पति हो इस व्यवस्था के लिये विशेष कार्यकारणभाव अावश्यक है । अन्य या घटजातीय के प्रति मिट्टी जातोय कारण है, केवल इस सामान्य कार्यकारण भाव को ही स्वीकार करने पर एक घट व्यक्ति की उत्पत्ति जिस मृत्पिण्ड व्यक्ति से होती है उस मत्पिण्ड व्यक्ति से अन्य सभी घट व्यक्ति का उत्पत्ति के अतिप्रसङ्ग का परिहार नहीं हो सकेगा।
बौद्ध के इस प्राशय को प्रस्तुत (४३) कारिका में संक्षिप्त रूपसे व्यक्त किया गया है कारिका यह है-'वस्तुस्थित्या तया....'
(कार्यसत्त्वसाधक ही कारण है-बौद्ध ) कारिका का अर्थ इस प्रकार है- कारण विशेष जो कार्य विशेष के सत्व का साधक होता है बह इसलिये है कि वही वस्तुस्थिति है । अर्थात् यही न्याय अर्थतःप्राप्त है। क्योंकि कारण विशेष के