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म्याक टीका-हिन्दीविवेचना ]
अनोत्तरम् 'न भावोऽस्तु' इति नैतदेवं यदुच्यते भवता-'तुम्छेन तुच्छताप्तव, इति न तन्निवृत्तिः इति' यनो भावोऽस्तु तुच्छता, एतमेवैतम्भिवृत्युपपत्तेगिन । पर आह-नासत् सदिति कथं चासत मद् भवति येनोच्यते 'तुच्छतानिवृत्तौ भावोऽस्तु'-रत्यभिप्रायः । अत्रोत्तरम्-'सदसत् कथमिति' ? एतदुक्तम्भवति-यग्रसत सद् न भवति प्रकृत्यन्यथायोगेन, ततः सदसत् कथं भवति ? इति ॥१७॥
पर आह
मलम्-स्वहेतोरेव तज्जातं तत्स्वभावं यतो ननु ।
तदनन्तरभावित्वादितरत्राप्यदः समम् ॥१८॥ स्वहेलोरेव-स्वकारणादेव तत्-सत्वम् जातम् उत्पन्नम् तत्स्वभाव असद्भवनस्वभावम् यतः यस्मात् , तस्मात् सदसन् भवतीति न दोपः । अत्रोत्तरम्-ननु यद्येवम् , तदा तदनन्तरभावित्वात् सत्यानन्तरभावित्वात इतरत्राऽपि असच्चे, अदः एतत् 'स्त्रहतारवाऽसव सद्भचनस्वभावं जातम्' इति कल्पनम् समतुल्ययोगक्षेमम् ॥१८॥ निवृत्ति द्वारा प्राप्तव्य है । किन्तु तुच्छ की निवृत्ति मानना यह उचित नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें तुच्छता स्वत:सिद्ध है । प्रतः उसको निवृत्ति मानना निष्प्रयोजन है। यदि यह कहा जाय कि 'तुच्छता की निवृत्ति का तुच्छ के लिए कोई प्रयोजन न हो किन्तु निवृत्ति को निवृत्ति के लिए ही मानना उचित है क्योंकि उसको न मानने पर वह स्वयं ही सिद्ध न होगी। जो चीज नित्य नहीं होती उसका अस्तित्व उसकी उत्पत्ति से हो सिद्ध होता है। तो यह कयन भी ठीक नहीं, क्योंकि तुच्छ निवृत्ति भी निवृत्ति रूप होने के कारण तुम्छ हो है । प्रत एष उसमें कोई वस्तु प्राप्तव्य नहीं हो सकती, प्रतः तुच्छ को निवृत्ति नहीं मानो जा सकती । और जब तुच्छ को निवृत्ति मानी नहीं जातो तब उसकी उत्पत्ति का अनुभव प्रमाण नहीं माना जा सकता ।
[प्रसत् सत् नहीं होता तो सत् असत् कैसे होगा-जन] इस पर जंग विद्वानों का यह उसर है कि-तुच्छ में तुच्छता स्वमावत: प्राप्त है इसलिए तुच्छ को निवत्ति मान्य नहीं हो सकती यह बौद्धों का कथम ठीक नहीं है। क्योंकि तुच्छ भावात्मक न बम जाय इसलिए तुच्छ की निवृत्ति मामला प्रावश्यक है । इसपर बौद्ध यह तर्क कर सकता है कि'तुच्छ की निवृति न मानने पर उसमें सस्व का प्रापावान उचित नहीं हो सकता । क्योंकि जो स्वमावत : असत् है वह सत् नहीं हो सकता । क्योंकि ऐसा मानने पर स्वभावहानि की मापत्ति होगो, जबकि स्वभावहानि किसी भी वादो को मान्य नहीं है। इसकाम विद्वान द्वारा यह उत्तर कि यदि प्रकृति के प्रन्ययात्व को प्रापत्ति के भय से असत् सत् नहीं हो सकता । तो सत् भी कैसे असत् हो सकता है ? निष्कर्ष यह हुमा कि पूर्वक्षण में सद्भूत भाव का असर काल में प्रसस्व सम्मन न होने से भावमात्र क्षणिक होता है इस बौड सिद्धान्त का लोप हो जायगा ॥१७॥