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[शा. वा. समुच्चय स्त-३ श्लोक-१९-२०
पर आह
मूलम-नाहे तोरस्य भवनं न तुच्छे तत्स्वभावता।
तन: कथं नु तद्भाव इति युक्त्या कथं समम् ॥१९॥ नाहेतो:न्नाकारणस्य अस्य-असत्यस्य भवनम् । तथा, तुच्छे-असस्वे, न तत्स्वभावना सद्भावस्वभावना, निःस्वभावत्वेन तुच्छत्वव्यवस्थानात् । यत एवं अतः कथं नु तगाव असतः सद्भावः, नेवेत्यर्थः । इति एवम् , युक्त्या न्यायेन कथं समं स्वहेतोरेव जातस्त्रादिकल्पनम् । इति ॥१९॥ अत्रोत्तरम्मूलम्-स एच भावरतहेतुस्तस्यैव हि तदाऽस्थितेः ।
स्वनिवृत्तिस्वभावोऽस्य भावस्येव ततो न किम् ॥२०॥ म एव भावो यम्याग्रिमणेऽसत्त्वम् , तडेतुः असत्त्वहेतुः, तस्यैव हिम्भावस्य तदा द्वितीयममये अस्थितः अभवनात् । एतेन नियतानन्तरभावित्वं हेतु-फलभावाङ्गमुक्तं,
[स्वभाव हेतुता में तल्यता को आपत्ति] १८ वी कारिका में उक्त के सम्बन्ध में ही और प्रश्नोत्तर प्रस्तुत किये गए हैं। जैसे, बौद्ध का कहना है कि-सत् वस्तु के असत्त्व को अनुपपत्ति बतलाना उचित नहीं है, क्योंकि सत् वस्तु अपने तथाभूत कारणों से बाद में असत् हो जाने के स्वभाव से युक्त होकर ही उत्पन्न होती है। इसके उत्तर में जैन का यह कहना है कि-बौद्ध का यह समाधान समोचीन नहीं हो सकता। चकि जैसे सात् अपने कारण से बाद में असत् हो जाने के स्वभाव से ही सम्पन्न होकर उत्पन्न होता है, उसी प्रकार यह भी कल्पना की जा सकती है कि 'असत् मी अपने हेतु से बाद में सत् हो जाने के स्वभाव से प्रन्वित होकर ही उत्पन्न होता है' ॥१८॥
[तुच्छ का कोई स्वभाव नहीं होता-बौद्ध) १६ वौं कारिका में बौद्धो की और से उक्त कथन का निम्तोक्त समाधान प्रस्तुत किया गया है किप्रसव के बारे में उक्त स्वभाव की कल्पना नहीं की जा सकती । क्योंकि प्रसत् का कोई कारण नहीं होता । अतः तुन्छ में मरूपताभवनस्वमाघ का प्रापादान नहीं हो सकता, क्योंकि तुच्छ बस्तु सर्वस्वभाव शून्य होती है अत एव दोनों कल्पनाओं में जो साम्य बताया गया है वह ठीक नहीं है ॥१९॥
[भाव और असत्त्व में हेतु-फलभाव है। बोसवीं कारिका में पूर्वोक्त बौद्धों के कथन का उत्तर दिया गया है जो इस प्रकार है-प्रसत का कोई कारण नहीं है-यह बौनों का कथन प्रसङ्गत है, क्योंकि पूर्ववर्तीभाव ही उत्तरकाल में होने वाले प्रसत्त्व का हेतु है । क्योंकि उत्तरकाल में पूर्ववर्ती भाव की प्रस्थिति अर्थात प्रसत्त्व होता है प्रतः पूर्ववर्ती भाव उत्तरकालभावी असत्त्व का कारण है। इस कयन से यह सूचित होता है कि नियतानन्तरमावित्व हेतु-फलमाव का अंग याने नियामक है। अर्थात मी जिसके मश्यवहित उत्तर