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[ शा. या समुच्चय स्त० ३-३० १७
पर आह
मृलम्- तदाभूतेरियं तुल्या तन्निवृत्तेन तस्य किम ।
तुच्छताऽऽयमेन भावोऽस्तु नासत् सत् सदसत्कथम् ||१७||
तदाभूतेः = तदोत्पत्तिदर्शनेन, अतुच्छस्योत्पादादि न्याय्यमित्यर्थः । अत्रोत्तरम् - इयम् अनुभवसिद्धा तदाभूतिः तुल्या, तुच्छस्याऽपि सच्चानन्तरम सच्वस्यानुभूयमानस्वात् । पर आह निवृत्ते अतुच्छ निवृत्तेः न तुल्या तुच्छस्य तदाभृतिः, 'अतुच्छस्योत्पादानुभवः प्रमाणम्, तुच्छस्य तु निवृत्त्यनुपपतेरुत्पादानुभवो न प्रमाणम्' इति भावः ।
अत्रोत्तरम् - न तस्य किं नत्र उभयत्र सम्बन्धात् 'तस्य तुच्छस्य किं न निवृत्तिः' ? इत्यर्थः । पर यह छताप्लेमिलि तुम्छैन उताप्न तदात्मकत्वात् न तनिवृता asपि तत्रान्यत् किञ्चिदाप्यमस्ति तनिवृत्तेरपि तुच्छत्वात् । अतो न तुच्छस्य निवृत्तिरिति ।
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( तुच्छ की अनिवृत्ति हेतु से उत्पत्तिविरह को शंका )
१७ वीं कारिका में पूर्वोक्त के सम्बन्ध में बौद्ध द्वारा श्राशङ्कत समाधान और उसके निराकरण की चर्चा की गई हैं।
कारिका का प्रर्थः जैन विद्वानों की और से जो यह कहा गया है कि यदि तुच्छत्य हेतु से सत्त्व में बौद्धों द्वारा उत्पत्ति विनाश विरह का साधन क्रिया आयेगा तो प्रतुच्छत्व हेतु से भाव में भी उत्पत्ति विनाश विरह के साधन की प्रापत्ति होगी यह समीचीन नहीं है। क्योंकि अतुच्छ को उत्पति अनुभव सिद्ध होने से न्यायसङ्गत है । किन्तु तुच्छ की उत्पत्ति अनुभव सिद्ध न होने से यह स्वीकार्य नही हो सकती । इसके उत्तर में जैन विद्वानों का कहना है कि श्रतुच्छ के समान सुच्छ को उत्पति भी अनुभवसिद्ध है। क्योंकि सत्त्व के बाद प्रसत्त्व का अनुभव सर्वसम्मत है । इस पर बौद्ध की यह आशङ्का है कि तुच्छ की उत्पत्ति में प्रतुच्छ की उत्पत्ति की तुल्यता नहीं है क्योंकि प्रतुच्छ की निवृत्ति भी होती है। इसलिए निवृत्ति के अनुरोध से प्रतुच्छ की उत्पत्ति के अनुभव को प्रमाण माना जाता है । किन्तु तुच्छ की निवृत्ति नहीं होती इसलिए तुच्छ की उत्पत्ति के अनुभव को प्रमाण नहीं माना जा सकता ।
( स्वतः तुच्छ की निवृत्तिनिष्प्रयोजन है-बौद्ध )
काfरका के द्वितीय पाद में स्थित 'नम्' पर का 'तनिवृत्तेः तुल्या न' इस प्रकार एक बार और 'तस्य किं न निवृत्ति: इस प्रकार दूसरी बार श्रन्वय मानकर व्यख्याकार ने जैन विद्वानों की औौर से इस भाशा का उसर दिया है कि जैसे तुच्छ की निवृत्ति होती है वैसे तुच्छ की निवृत्ति क्यों नहीं होगी ? अर्थात् अतुच्छ को निवृत्ति के समान तुच्छ को निवृति भी मान्यता प्राप्त होने से तुच्छ की उत्पत्ति के अनुभव को प्रमाण मानने में कोई बाधा नहीं हो सकती । इस पर वौद्ध की और से यह कहा जा सकता है कि किसी भी वस्तु की निवृत्ति उसमें तुच्छता की उपपत्ति के लिए मानी जाती है। प्रत: अतुच्छ की निवृत्ति तो उचित हो सकती है क्योंकि निवृति से निवर्तमान को तुच्छता प्राप्त होती है जो प्रतुच्छ में स्वभावतः प्राप्त न होने से