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शा० का टीका-हिन्दी विवेचना
एतदेव स्पष्टयनाहमूलम्- कादाचिकमको यस्मादुत्पादावस्य तत् ध्रुवम् ।
तुच्छत्वान्नेत्यतुच्छस्याप्यतुच्छत्वात्कथं नु यत् ॥१६॥ अदः एतदमत्वम् यस्मात् कादाचित्कम् भावकालेऽसन्चात् , तदस्योत्पादादि-उत्पादविनाशादि ध्रुव-नियतम् , यद्यत् कादाचित तत्तदुत्पादादिमदिति व्याप्तेः । पर आह तुच्छस्वादसखस्योत्पादादि नेति । परिहरति-अतुच्छस्यापि भावस्य अतुच्छत्वात् कारणात् कथं नु तदुत्पादादि १ यद्-यस्मादेवं अतो न प्रागुक्तम् , अप्रयोजकहेतुमात्रेण साध्यासिद्धेरिति भावः ॥१५॥
वस्तु के अभाव के ग्रहण में, निमित्त होते हैं । द्वितीयादि क्षण में जैसे भाव का प्रग्रहण होता है उसी प्रकार भाव के प्रभाव का भी प्रहण होता है । अतः उसकी उपपत्ति के लिए उस समय भाव के असत-व्यवहार को स्वीकारना आवश्यक है। और यह व्यवहर्तव्य के प्राधीन होता है. इसलिए द्वितीयादि क्षण में भाव के असत् व्यवहार की उपपत्ति के लिए भाव के प्रसत्त्व का उत्पाद मानना प्रावश्यक है ॥१५॥
(असत्त्व कादाचित्क होने से उत्पतिशोल है) १६ वीं कारिका में पोंक्त को स्पष्ट किया गया है।
कारिका का अर्थः असत्त्व कादाचित्क होता है, क्योंकि माव के उदयकाल में वह नहीं होता । इसलिए उसकी उत्पत्ति और नाश अपरिहार्य-अनिवार्य है । क्योंकि जो कादाचित्क-स्वतित्वस्वभिन्न कालवत्तित्वोमय सम्बन्ध से काल विशिष्ट होता है वह उत्पत्तिविनाशशाली होता है । इसपर यह शङ्का हो कि-'उत्पत्ति-विनाश शालित्व का यदि उत्पत्ति-विनाश उभयशालित्व अर्थ होगा सो उक्त कादाचिकत्व हेतु से उत्पत्तिनाश उभयशालित्व का अनुमान नहीं हो सकता, क्योंकि प्रागमाष
और ध्वंस में कादाचित्कत्व हेतु उत्पत्तिविनाशउभयशालित्व का व्यभिचारी है। और यदि उत्पत्तिविनाश उभयशालित्व का उत्पत्ति विनाश अन्यतर शालित्व अर्थ किया जायेगा तो असत्त्व में उत्पत्ति सिद्ध होने से सिद्ध साधन होगा' । किन्तु यह शङ्का उचित नहीं है क्योंकि अभी प्रसत्व को भावकाल में अविद्यमान बताकर उसे कादाचित्क कहा गया है। उसकी उत्पत्ति अभी तक निर्धारित नहीं है। प्रतः उत्पत्ति विनाश अन्यत्तर शालित्व का साधन करने से विनिगमना के विरह से उत्पत्ति विनाश दोनों को सिद्धि असत्व में होगी जो बौर को मान्य नहीं है।
इस पर बौद्ध की और से यह शङ्का की जा सकती है कि-"प्रसस्व तुच्छ है, इसलिए उसका