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[शा. वा समुच्चय स्त-४ श्लोक-१५
प्रच्युत्या, तद्विरोधे च पीतादीनामपि तत्प्रच्युतिव्याप्तानां तेन विरोधः, तथा च 'प्रमाणं नीलपरिच्छेदकत्वेन प्रवृत्तं नीलग्रच्युति सद्याप्तांश्च पीतादीन् व्यवच्छिन्ददेव स्वपरिच्छेद्यं नीलं परिच्छिनत्ति' इत्यभ्युपगमः।
सच भावाभवनस्य शशविषाणप्रख्यत्वे भावविरुद्धत्वस्य पीतादिव्यापकत्वस्य चाऽभावाद् नोपपद्यत इति । न च तदभवने तदग्रहणमात्रमेव, न तु तदतिरिक्तग्रहणम्, इति न सदभवनमेव तदसत्त्वभवनमिति वाच्यम् , सद्वयवहारनिषेधाऽसद्धयवहारप्रवृत्त्यास्तदग्रहणतदभावग्रहणनिमित्तत्वादिति दिए ।।१५
[भाष का अभाव तुच्छ नहीं है ] व्याख्याकारने इस विषय को स्पष्ट करते हुए यह कहा है कि भाब के अभवन-यानी असत्त्व को काल्पनिक-तुच्छ नहीं माना जा सकता क्योंकि भाव के प्रभवन को काल्पनिक मानने पर भाव भी काल्पनिक हो जायेगा। कहनेका प्राशय यह है कि बौद्धों के मत में नील-पीतादि में लक्षणमूलक विरोध माना जाता है, क्योंकि लक्षरण वस्तु के स्वरूप का नियामक अर्थात् लक्ष्यतावच्छेदक का नियामक होता है। अतः जिसमें लक्षण का प्रभाव होता है उसमें लक्ष्यतावच्छेदक का प्रभाव होता है अर्थात् वह लक्ष्य से भिन्न होता है । इस प्रकार लक्ष्य और अलक्ष्य का जो भेदात्मक विरोध है वह लक्षणमूलक होता है। जैसे अनील पीतादि) का लक्षण होता है नोलभाव की प्रच्युति अर्थात् नी भाव का अभाव, इस प्रभाव के साथ नील का विरोध है और पोतादि इस प्रभाव का व्याप्य है क्योंकि जो मी पोतादिरूप होता है उसमें नील प्रच्यति अर्थात नील भाव का प्रभाव रहता है। नीलभावाभाव अर्थात् नील प्रच्युति के साथ नील का विरोध होने से उसके ध्याप्य पीतादि के साथ भी विरोध होता है। क्योंकि व्यापक के साथ जिसका विरोध होता है उसका व्याप्य के साथ विरोध न्यायप्राप्त होता है। इसलिए नील का निश्चय करने के लिए जो प्रमाण प्रवृत्त होता है वह नीलप्रच्युति-नोलभावाभाव और उसके व्याप्य पीतादि का व्यवच्छेद करते हुए अर्थात् नील में उनके ज्ञानको व्यावृत्ति करते हुए नीलका निश्चायक होता है । अर्थात् नीलग्राही प्रमाण से "अयम् अनीलभिन्नः, पीतादिभिन्नश्च नील" इस प्रकार का ज्ञान उत्पन्न होता है।
अब यदि भाव का प्रभवन शशसोंग के समान तुच्छ होगा तो नीलभाषाभावरूप नीलप्रच्युति मी तुम्छ होगी। अत: उसमें नोल का विरोध एवं पोसावि को व्यापकता नहीं रहेगो। क्योंकि तुच्छ वस्तु किसीकी विरोधी या व्यापक नहीं होती। फलतः नीलपीतादि में जो लक्षण मूलक विरोध बौद्धो द्वारा माना जाता है उसको अनुपपत्ति हो जायेगी। जिसका परिणाम होगा पीतादि विरुद्ध नीलावि के प्रसत्त्व को आपत्ति । प्रतः भाव के प्रभवन को काल्पनिक मानने पर भाव के काल्पनिकत्व को भापत्ति अपरिहार्य है।
मदि यह कहा जाय कि-'किसी वस्तु का प्रमवत होने पर उसका अज्ञान मात्र हो होता है। उस वस्तु के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु का ज्ञान नहीं होता। अतः द्वितीयादि क्षण में माव के अभवन से भाव का प्रग्रहण मात्र हो जाता है, उसको असत्त्व की प्रापत्ति नहीं हो सकती'-तो यह ठोक नहीं है । क्योंकि सत व्यवहार का निषेध वस्तु के अग्रहण में, और असत्-व्यवहार की प्रवृत्ति