________________
म्या० टीका-हिन्दीविवेचना ]
[ २५
अवाक्षेप परिहारावाहमुलम्-न तद्भवति चेत् किं न सदा सत्वं तदेव यत् ।
न भवत्येतदेवास्य भवनं सूरयो विदुः ॥१५॥ न तत् असत् भवति तुच्छत्वादिभिप्राय इनि चेन ? किन सदा सच्च मावस्य, सदसच्चाभावात् । पर आह-तदेव-सत्वमेव यद्यस्मात् न भवति द्वितीयादिक्षणेपु, अतो न सदा मच्चं भावस्य । अत्रोत्तरम्-एतदेव भावस्याऽभवनं तदात्वेनाऽसत्वस्य भवन, सूरमा पण्डिताः विदुः जानन्ति ।
तथा हि-नेदं भावाऽभवनं काल्पनिकम् , तथात्वे मावस्याऽपि काल्पनिकत्वाऽऽपत्तेः, यतो लाक्षणिको बिरोधो नील-पीतादेः परैरभ्युपगम्यते, वस्तुस्वरूपव्यवस्थापकं च लक्षणम् , ननिमित्तो बिरोधो लाक्षणिक उच्यते, भावग्रच्युतिश्च लक्षणम् , यतो नीलस्य विरोधो नीलमानने से एकक्षणमात्रस्थायित्व रूप क्षणिकत्व में कोई बाधा नहीं हो सकती'-किन्तु यह कथन भो ठीक नहीं है क्योंकि प्रभाव प्राधिकरण से भिन्न नहीं होता। अत एव द्वितीयादि क्षण में पूर्वभाव को व्यावहारिक निवृत्ति रूप जो अस्थिति होती है वह द्वितीयादि क्षणरूप होगी। प्रतः द्वितीयादि क्षण के निवृत्त होने पर पूर्वभाव की स्थिति भी निवृत्त हो जायगी । इसलिए भावनिवृति रूप व्यावहारिक नाश को कल्पना भी निरर्थक हो जाती है । फलत:, उत्तरभाव को ही पूर्वभाव का तात्त्विक नाश मानना होगा। और वह उत्पत्तिशील होने के नाते उस नाश का नाश भी अनिवार्य होगा। अत: नष्ट के पुनर्दर्शन की आपत्ति का परिहार नहीं हो सकता।
यही तथ्य प्रस्तुत कारिका (१४) के "सतोऽसत्त्वं व्यवस्थितम्" से व्यक्त किया गया है जिसका अर्थ यह है कि उत्पत्ति क्षण में सत् घटादि द्वितीयादि क्षण में असत् उत्पन्न होता है । इसलिए १२ वीं कारिका ( सतोऽसत्वे तदुत्पादस्ततो नाशोऽपि तस्य यत् । तन्नष्टस्य पुनर्भावः सदानाशे न तरिस्थति: ॥१२॥ ) में कहे गये दोष के उद्भावन का अतिक्रमण ( निवारण ) नहीं हो सकता ॥१४॥
[ सस्व का न होना ही असत्य है ] १५ वों कारिका में बौद्धमत के विरुद्ध प्रतिपादन के उपर मौतों द्वारा किये गये प्राक्षेप और उसके समाधान का उल्लेख किया गया है। कारिका में, सर्व प्रथम बौद्ध का यह अभिप्राय है कि पूर्वभाय का असत्त्व नहीं होता थाने प्रसत्त्व उत्पन्न नहीं होता क्योंकि प्रसत्त्व तुच्छ होता है । और तुच्छ की उत्पत्ति नहीं होती।
इस अभिप्राय के विस सिद्धाम्ती जन को प्रोर से यह कहा गया है कि यदि भाव का प्रसत्त्व नहीं होगा तो मावका सर्वदा सस्प हो जायेगा। इसके विरुद्ध पुनः बौद्ध की ओर से यह शङ्का की गई है कि द्वितीया विक्षण में माव का प्रसस्त उत्पन्न नहीं होने पर मो मावका सत्त्व न रहने से उसके सा सस्व की प्रापत्ति नहीं हो सकती । इस कपन का सिद्धान्ती की ओर से उत्तर यह किया गया कि द्वितीयाविक्षण में भाव के सरकका न होना ही भाव के प्रसत्त्व का होना विद्वज्जनों को मान्य है।