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स्या क० टीका-हिन्दीविवेचना ]
चतुर्थेऽप्यन्ते क्षयदर्शनात् तदन्यथानुपपत्या प्रागपि तत्सिद्धिः । इह प्रत्यक्षानुपपत्तिमुलम् , आद्य तु स्वभावानुपपत्तिरिति विशेषः ॥२॥
(४) चौथा हेतु है अन्त में माव के नाश का प्रत्यक्ष । प्रत्यक्ष विषयजन्य होने के कारण यह प्रत्यक्ष भावनाश के अधीन है । और भाव का नाश अन्त में भी यदि सहसा ही होगा तो भाव की उत्पत्ति के अव्यवहितोस रक्षण में उसको उत्पत्ति अपरिहार्य होगा क्योंकि सहसा उत्पत्ति में किसी को अपेक्षा न होने से उसमें विलम्ब होने का कोई कारण नहीं है। और यवि अन्त में प्रत्यक्ष विख पड़नेवाले भावनाश को हेतुजन्य माना जायगा तो प्रश्न यह होगा कि उस हेतु का संनिधान कौन करता है माव स्वयं करता है या अन्य कोई करता है ! द्वितीय पक्ष में संनिधान के अन्य किसी निमित्त में कोई निदोषयक्ति न होने से भाव को ही नाश हेतु के संनिधान का सम्पादक मानना होगा। तो यदि भाव से ही उसके नाशक का संनिधान होता है तो भाव के उत्पत्ति काल ही में उसके नाशक का संनिधान प्रवर्जनीय होगा । अतः उत्पत्तिक्षण बाद ही के क्षण में भाव का नाश हो जाने से उसके क्षणिकत्व की सिद्धि अनिवार्य है। प्रश्न हो सकता है यदि बीज प्रादि भाव का नाश इस के द्वितीय क्षण में ही होता है तो उसी समय बीज आदि माय के नाश का प्रत्यक्ष क्यों नहीं होता ? वह अंकुर प्रादि का प्रादुर्भाव होने पर ही क्यों होता है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि बीज प्रावि माव अपने प्रग्रिम क्षणों में अपने समान बीज प्रादि को उत्पन्न करते रहते हैं अतः समान अग्रिमखोज के प्रत्यक्ष से पूर्वबोजनाश के प्रत्यक्ष का प्रतिबन्ध हो जाता है । अन्तिम बोज नये बीज का जनक नहीं होता, अत एव उस से किसी समान बीज को उत्पत्ति नहीं होती। अत: कोई प्रतिबन्धक न होने से प्रडकुरोत्पत्ति के समय बीज ना का प्रत्यक्ष होता है।
प्रयवा यह भी कहा जा सकता है कि बोजादिभावों का नाश अग्रिम क्षण में उन से उत्पन्न होने वाले भाव से भिन्न नहीं होता, उत्तरोत्तर माव ही पूर्वभाष का नाश कहा जाता है। इसीलिए यह प्रश्न ही नहीं ऊठ सकता कि अङ्कुरोत्पत्ति के पूर्व ही बीज नाश का प्रत्यक्ष क्यों नहीं होता? क्योंकि उत्तरोत्तर भाव का प्रत्यक्ष होने से पूर्वभाव के नाश का प्रत्यक्ष होना सिद्ध ही है। इस प्रकार उत्तरोत्तर धीज का प्रत्यक्ष पूर्व पूर्व बोज के नाश का प्रत्यक्ष है । और अंकुर का प्रत्यक्ष अन्तिम बीज के नाश का प्रत्यक्ष है। पूर्व बीज से अंकुरात्मक बीजनाश की और अन्तिम बीज से बीजात्मक बीजनाश की उत्पत्ति क्यों नहीं होती ? इसका उत्तर यह है कि अंकुर का कारण यह भाव होता हैं जिसमें अंकुर कुर्वत्पत्य होता है, और बोज का कारण वह होता है जिसमें बीजकुर्वद्रूपत्व होता है । पूर्व बोज में अफरकूटपत्व नहीं होता है इसलिए पूर्व बीजों से अडकूर उत्पत्ति नहीं होती और अन्तिम में बीज कुर्षद्र पत्व नहीं होने से उससे बीज की उत्पत्ति नहीं होती।
प्राशय यह है कि किसी भाव के नाश का प्रत्यक्ष जो अन्त में होता है उसकी उत्पत्ति के लिए भाव का नाश मानना अनिवार्य है उस नाश के अपने प्रतियोगी भावमात्र के ही अधीन होने के कारण भाव की उत्पत्ति के द्वितीय क्षरण में ही उसको उत्पत्ति अपरिहार्य है इसलिए चौथे हेतु से भी क्षणिकस्व की सिद्धि प्रावश्यक है।
प्रथम हेतु और चौथे हेतु में क्षणिकत्व की साधकता का प्राधार भिन्न होने से दोनो में अन्तर है। जैसे, चौथा हेतु इसलिए क्षणिकत्व का साधक होता है कि भाव को क्षणिक माने बिना नाश की उत्पत्ति