________________
१.]
[शा. वी. समुरुचय-स्त०४-एलो०३
योगाचारमतप्रयोगमाह
मूलम्-ज्ञानमात्र घ यल्लोके ज्ञानमेवानुभूयते ।
नार्थस्तव्यतिरेकेण ततोऽसौ नैव विद्यते ॥३॥ ज्ञानमात्रं च 'जगत्' इति शेषः। चकारेण क्षणिकत्वसमुच्चयः । हेतुमाह-यद् यस्मात् , लोके ज्ञानमेवाऽनुभूयते, अर्थस्तद्वयतिरेकेण नानुभूयते, तस्य जडत्वाभ्युपगमात् , ज्ञानविषयताया ज्ञानाऽभेदनियतत्वात् । ततः, असौ-संवृतिसिद्धोऽर्थः, नैव विधाते-पारमार्थिको नेत्यर्थः ।।३।।
संभव न होने के कारण उसके प्रत्यक्ष को अनुपपत्ति होती है। और प्रथम हेतु नाशकारणामाय इसलिए क्षणिकत्व का साधक है कि नाशकी उत्पत्ति भाव को नश्वर स्वभाव मानने पर होती है और यह स्वभाव को क्षणिक माने बिना नहीं उपपन्न हो सकता ॥२॥
[ अनुभव से ज्ञानमात्र का अस्तित्व-योगाचार ] तीसरी कारिका में योगाचार मत की स्थापना करते हुए कहा गया है कि-विश्व में ज्ञान का हो अनुभव होता है. ज्ञान भिन्न वस्तु का अनुभव नहीं होता, क्योंकि मनुष्य को जो अनुभव होता है वह 'मैं अमुक वस्तु को जानता हूं' इसी रूप में होता है, 'यह अमुक वस्तु है' इस रूप में नहीं होता । लोक में किसी वस्तु के सम्बन्ध में जो यह कहा जाता है कि यह अमुक वस्तु है' वह अनुभव नहीं है किन्तु वचनमात्र है और वचन अनुमवाधीन होता है । अनुभव 'मैं इस वस्तु को जानता हूँ' इस रूप में ही होता है।
प्राशय यह है कि किसी भी वस्तु की सिद्धि अनुभव से ही होती है और अनुभव उसी वस्तु का हो सकता है जिस वस्तु का अनुभव कर्ता के साथ सहज संबंध हो क्योंकि अनुभवकर्ता को यदि असंबद्ध वस्तु का भी अनुभव माना जायगा तो वस्तु में ज्ञात और अज्ञात का भेव न हो सकेगा, क्योंकि उस वशा में सभी वस्तु समान रूप से अनुभव कर्ता को जात होगी। वस्तुवादी के मत में वस्तु ज्ञानसे भिन्न होती है, अत: जड होती है, अनुभव कर्ता के साथ उसका सहज सम्बन्ध नहीं हो सकता। प्रतः ज्ञान से भिन्न होने पर उसका अनुभव नहीं हो सकता । वस्तु में जो ज्ञानविषयता का व्यवहार होता है वह वस्तु को ज्ञान से अभिन्न मानने से हो हो सकता है। इसलिए यह सिद्ध होता है कि 'जगत में एकमात्र ज्ञान ही सत् वस्तु है ज्ञान से भिन्न यदि कोई वस्तु प्रतीत होती है तो वह संवृतिमूलक है वासनामूलक है। संवृत्ति का अर्थ है-जिससे वस्तु के सत्यस्वरूप का संवरणप्रावरण हो, और वह है प्रनादिसिद्ध वासना । वस्तु का वास्तविक स्वरूप ज्ञानात्मकता ही है, किन्त मनुष्य वस्तु को ज्ञान से भिन्न समझता है और वह ऐसा इसलिए समझता है कि अनादि काल से वस्तु को ऐसा ही समझने को उसकी वासना बन गयी है। इसलिये वस्तु की शामाऽभिन्नता का मूल बासना रूप संवृति हो है । अत: वस्तु को शानभिन्नता प्रसत् है और वस्तु की जानरूपता पारमार्थिक है। प्राशय यह है कि वस्तु ज्ञानभिन्न रूप में मसत् है, पारमार्थिक नहीं है, पारमार्थिक केवल ज्ञान रूप में ही है ॥३॥