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स्था० ० टीका-हिन्दी विवेचना ]
अत्र समाधान वार्त्तामाह
मूलम् - अत्राप्यभिदधत्यन्ये स्मरणादेरसंभवात् । बाह्यार्थवेदनाच्चैव सर्वमेतदपार्थकम् ||४||
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अत्रापि - बौद्धवादेऽपि, अन्य - जैनाः, अभिदधति उत्तरयन्ति । किम् इत्याहक्षणिकत्वे स्मरणादेरस भवात्, बाह्यार्थवेदनाच्चैव वाह्यार्थ प्रमान्यथानुपपच्या ज्ञानमात्रासिद्वेश्चैवेत्यर्थः, सर्वमेतत्-दिङ्मात्रेण निर्दिष्टं सौगतमतद्वयम्, अपार्थक निष्प्रयोजनम् ॥४॥
( बाह्यार्थ के अबाधित अनुभव से बौद्धमत को प्रयुक्तता - उत्तरपक्ष )
इस कारिका में जैन मनीषियों की ओर से बौद्ध के उक्त मतों का निराकरण करते हुए यह कहा गया है कि 'भावमात्र को क्षणिक मानने पर भाव के स्मरण और प्रत्यभिज्ञा को उपपत्ति असंभव होगी' । स्मरण की अनुपपत्ति के दो कारण हैं । (१) स्मरण की उत्पत्तिपर्यन्त भाव के पर्यानुभव के संस्कार का न होना। घौर बुसरा कारण है अनुभव कर्ता का न होना । श्राशय यह है कि जब किसी मनुष्य को किसी भाव का अनुभव होता है तब उस प्रनुभव से एक संस्कार उत्पन्न हो जाता है और कालान्तर में जब किसी हेतु से यह संस्कार उद्बुद्ध होता है तब उस भाव के पूर्वानुभवकर्ता मनुष्य को उस भाव का स्मरण होता है । किन्तु यदि भावमात्र को क्षणिक माना जायगा तो माव के अनुभव से उत्पन्न होने वाला मावविषयक संस्कार भी क्षणिक होगा, एवं भाव का अनुभव करने वाला व्यक्ति भो क्षणिक होगा, अतः स्मरण की उत्पत्ति के समय दोनों का प्रभाव होने से स्मरण का होना असंभव होगा । प्रत्यभिज्ञा की प्रनुत्पत्ति में भी यही दो कारण है, क्योंकि स एव अयं घटः ' -यह वही घडा है यह प्रत्यभिज्ञा पूर्वानुभूत घट और वर्तमान में दृश्यमान घट के ऐक्य को विषय करती है और होती है उसी मनुष्य को जिसे दृश्यमान घट का पूर्वकाल में अनुभव हुम्रा रहता है।
भावमात्र के क्षणिकत्व पक्ष में पूर्वानुभूत घट और वर्तमान में दृश्यमान घट में मेद होता है एवं वर्तमान में घट को देखने वाला व्यक्ति पूर्वकाल में घट का प्रतुभव करनेवाले व्यक्ति से भिन्न होता है, यतः भावमात्र को क्षणिक मानने पर प्रत्यभिज्ञा भी नहीं हो सकती । स्मरण और प्रत्यभिज्ञा का अपलाप भी नहीं किया जा सकता क्योंकि उन के आधार पर लोक में अनेक व्यवहार होते हैं। [ ज्ञानभिन्न वस्तु असत् नहीं है ]
इसी प्रकार जगत् को केवल ज्ञानमात्रात्मक भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि ज्ञान से भिन्न वस्तु का अस्तित्व न होगा तो उस का यथार्थ ज्ञान भी नहीं होगा, क्योंकि प्रसद् वस्तु का यथार्थज्ञान नहीं होता। यह नहीं कहा जा सकता कि- ज्ञानभिन्न वस्तु का यथार्थज्ञान प्रसिद्ध है क्योंकि भूतल यदि देश में घट आदि के ज्ञान से उन स्थानों में घट आदि की प्राप्ति होती है। यदि यह ज्ञान अयपार्य हो तो उस से वस्तु की प्राप्ति नहीं होनी चाहिए क्योंकि लोक में जिस ज्ञान को प्रयथार्थ समझा जाता है उस से वस्तु की प्राप्ति नहीं होती । ज्ञान भिन्न वस्तु के ज्ञान को यथार्थ मानना इसलिए भी उचित है कि अन्य ज्ञान से इस का बाध नहीं होता. यदि बाध न होने पर भी ज्ञान यथार्थ होगा तो ज्ञान का अनुभव भी यथार्थ होगा ग्रतः शान भी सत्य बस्तु के रूप में सिद्ध हो न सकेगा । अत: सभी भाव क्षणिक होता है और ज्ञान से भिन्न कोई वस्तु नहीं होती' बौद्ध के ये दोनों हो मत प्रयुक्त एवं निरर्थक है ||४||