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स्या० क० टीका- हिन्दीविवेचना ]
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मूलम्-एतदप्युक्तिमात्रं यन्न हेतु-फलभावतः ।
संतानोऽन्यः स घायुक्त एषाऽसत्कार्यवादिनः ॥१०॥ एतदपि-संतानैक्यमादाय सामाधानमपि, अक्तिमात्र थुक्तिशून्यं वचनम् , यद्यस्मात् कारणात, हेतु-फलभावतः-पूर्वा-ऽपरक्षणहेतु-हेतुमद्भाबाद अन्यः संतानो नास्ति । 'एवमपि नानुपपत्तिः, स्वजन्यतासंबन्धनानुभवादेः स्मृत्यादिनियामकत्वात् , प्रत्यभिज्ञाया अपि स एवायं गकारः' इत्यादाविय तज्जातीयाभेदविषयकतयोपपत्तेः, इच्छादेरएि समानप्रकारकतयैव प्रवृश्यादिहेतुतयोपपत्तेश्च" इत्यत आह-स चक्षणिकहेतु-हेतुमद्भावश्च, असत्कार्यवादिनो मते अयुक्त एव ॥१०॥ होनेवाले कपास में ही अपना फल अर्थात् कपास में हो रक्ततावगाही विशिष्ट वृद्धि को उत्पन्न करती है इस प्रकार भावमात्र को क्षणिक मानने पर भी उसके विकास में अनुवर्तमान संतान के द्वारा कर्मों के प्रामुठिमक फलोपभोग को उपपत्ति सम्भव होनेसे मोक्ता को स्थिर मानने की कोई पावश्यकता नहीं रह जाती 11
(सन्तान पूर्वापरभावापन्न क्षरणों से अतिरिक्त नहीं) १०वों कारिका में बौद्ध द्वारा पूर्वनिर्दिष्ट समाधान की प्राशङ्का का उत्तर दे रहे हैं जो इस प्रकार है-सन्तान की एकता को स्वीकार करके जो समाधान बौद्धों द्वारा प्रस्तुत किया जाता है यह केवल कथनमात्र है, उसमें कोई युक्ति नहीं है। क्योंकि हेतुहेतुमद्भाव पूर्वोत्तर क्षण में ही होता है अर्थात् पूर्वक्षण उत्तरक्षण का कारण होता है । एवं उत्तरक्षण स्वोत्तरवती उत्तरक्षण का कारण होता है। इस प्रकार क्रम से उत्पन्न होने वाले क्षणों में ही कार्य-कारण भाव निहित है। सन्तान का कोई कारण सिद्ध नहीं है अतः उन क्षणों में भिन्न सन्तान का अस्तित्व ही नहीं हो सकता।
स्मृति और प्रत्यभिज्ञा की नये ढंग से उपपत्ति-सौगत) बौद्ध:-सन्तान को स्वीकार न करने पर भी भावमात्र के क्षणिकत्व पक्ष में अनुभव से स्मत्यादि की और इस जन्म में किये गये कर्म से जन्मान्तर में फलभोग को प्रापत्ति नहीं हो सकतो, क्योंकि स्वजन्यतासम्बन्ध से अनुभव प्रादि को स्मृत्यादि का नियामक माना जायेगा । आशय यह है कि क्षणिकत्व पक्ष में वस्तुओं में कार्यकारणभाव सामानाधिकरण्यमूलक नहीं होता क्योंकि कोई स्थायी प्राधार न होने से कार्य और कारण में सामानाधिकरण्य को सम्भावना हो नहीं हो सकती। अतः अव्यवहित पूर्वापर भाव के हो प्राधार पर कार्य-कारण भाव होता है अर्थात् पूर्वमाय उत्तरभाव का कारण होता है। इसी प्रकार का कार्य-कारण माव होता है, इस स्थिति में पूर्वानुभव से कालान्तर में स्मति को उपपत्ति इस प्रकार की जाती है कि अनुभवक्षण वासना क्षण को उत्पन्न करता है। प्रोर वासनाक्षण प्रपने उत्तरोत्तर वासनाक्षण को उत्पन्न करता है, चरम वासनाक्षण स्मतिक्षण को उत्पन्न करता है । इसी प्रकार भावमात्र के क्षणिकत्व पक्ष में प्रत्यभिज्ञा की भी उपपत्ति हो सकती है क्योंकि प्रत्यभिज्ञा के विषयभूत पूर्व वस्तु और वर्तमान वस्तु में व्यक्तिगत ऐषय न होने पर भी जातिगत ऐक्य के प्राधार पर सजातीय प्रभेव को प्रत्यभिज्ञा का विषय मान सकते हैं ।