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[ शा.बा. समुच्चय स्त-४-श्लो० ११
तथाहि--- मूलम्-नाभावो भावतां याति शशशृगे तथाऽगतेः ।
भावो नाभावमेतीह तदुत्पत्त्यादिदोषतः ॥११॥ न अभावः तुच्छ भावतां याति-अतुच्छता प्रतिपद्यते । कुतः १ इत्याह-शशशृङ्गे
दृष्टान्त के रूप में यह दृष्टव्य है कि जैसे शब्दअनित्यतावादो के मत में पर्वश्रुत गकार और वर्तमान में श्रयमाण गकार में ऐक्य न होने पर भी उन दोनों में विद्यमान 'यत्व' प्रादि के एक होने से भ्रयमाण गकार में पूर्व श्रुत गकार के सजरतीय प्रमेव को विषय मानने से यह नहीं गकार है' इस प्रत्यभिज्ञा की उपपत्ति होती है, इसी प्रकार भावमात्र के क्षणिक-पक्ष में पूर्वोत्तरवर्ती भावों में भेद होने पर भी पूर्व में अनुवर्तमान प्रतव्यावृत्तिमय घटत्वादि जाति के अभिन्न होने से उत्सरघर में
य प्रमेव को विषय करके 'यह वही घट है' इस प्रकार की प्रत्यभिज्ञा की उपपत्ति हो सकती है।
एवं विभिन्न क्षणिक भाव विषयक इच्छादि से क्षणिक भावान्तर को विषय करनेवाली प्रवृत्ति और प्राप्त्यादि की भी उपपत्ति हो सकती है, क्योंकि प्रवृत्त्यादि के प्रति इच्छादि को समानविषयकस्य रूप से कार्य-कारणभाव न मानकर समान प्रकारकत्व रूप से कार्य-कारणभाव होता है । अन्यथा स्थर्यवादी के मत में भी किसी अलविशेष में पिपासाशामकत्व का ज्ञान होने से दूसरे जल पोने में मनुष्य को प्रवृत्ति न होगी, क्योंकि पिपासु की प्रवृत्ति के प्रति पिपासाशामकत्व का ज्ञान कारण होता है और वह पूर्व में पीये गये जल में ही गृहीत हं, नवीन जल में गृहीत नहीं है अतः पूर्व में पिये गये जलमें पिपासाशामकत्व ज्ञान होने पर नवीन जल विषयक पिपासु प्रवृत्ति के प्रति जलस्त्र रूप समान प्रकार द्वारा हो कार्य-कारण भाव मानना आवश्यक होता है । इस प्रकार जब स्वयंवादो के मत में भी समान प्रकारकत्व रूप से हो ज्ञान-इच्छा प्रवृत्यादि में कार्य-कारण भाव है तो उस प्रकार के कार्य-कारण भाव द्वारा भावमात्र में क्षणिकत्व पक्ष में भी भिन्न विषयक इच्छावि से भिन्न विषयक प्रवत्यादि की उपपत्ति हो सकती है । अतः उनके अनुरोध से भाव में स्थिरत्व की कल्पना अनावश्यक है।
बौद्धों के इस कथन का उत्तर प्रस्तुत कारिका।१०) के चौथे चरण में दिया गया है जिसका आशय यह है कि सौगत मत में उत्पत्ति के पहले कार्य सर्वथा असत् होता है । कार्य के प्रसत् पक्ष में क्षरिएकभावो में कार्य-कारण भाव को कल्पना युक्तिसङ्गत नहीं हो सकती है इसलिये कार्य-कारण भाव के प्राधार पर उक्त रीति से अनुभवादि से स्मृत्यादि का उपपादन नहीं हो सकता। कहने का अभिप्राय यह है कि कार्य के प्रसत् पक्ष में कार्य को कारण के साथ कोई सम्बन्ध न होने से कार्य-कारण भाव
नहीं बन सकता, क्योंकि कारण को असम्बद्ध कार्य के उत्पादक मानने से सबसे सबकी उत्पत्ति की आपत्ति होगी और इस दोष का परिहार करने के लिये यदि कारणकाल में अर्थात् कार्योत्पत्ति के पूर्व भी किसी रूप में कार्य की सत्ता मानो जायेगी तो क्षणिकरववाद का भङ्ग हो जायेगा ॥१०॥
(भाव और प्रभाव का अन्योन्य परिवर्तन असम्भव) ११ वो कारिका में प्रसत्कार्यवाव में कार्योत्पत्ति के असम्भव का प्रतिपादन किया गया है। कारिका का प्रयं इस प्रकार है