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स्या क० टीका और हिन्दी विवेचना ]
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तथा भावत्वेन अगले:अपरिच्छेदात । तथा, भावः अतुच्छः नाऽभावमेतिम्न तुच्छता याति, इह-जगति । कुतः इत्याह-तदुत्पत्त्यादिदोषत:प्रभावोत्पत्यादिदोपप्रमङ्गात् ॥११॥ तथाहिमूलम्-सतोऽसच्चे तदुत्पादस्ततो नाशोऽपि तस्य यत् ।
तन्नष्टस्य पुनर्भावः सदानाशे न तस्थितिः ॥१२॥ सतः क्षणिक मायस्य, असत्त्वे-द्वितीयादिक्षणेऽसत्त्वे सति नदुत्पाद: असत्योत्पादः, कादचिकत्वात् । तत: उन्मादान नाशोऽपि तस्य-असत्वस्य, यद्यस्मात् कारणात् तत्-तस्मात् , नष्टम्य सतः पुनभावः, तदसत्वनाशाधिकरणक्षणन्त्रस्य तदधिकरणत्वप्याप्यत्वादिति भावः । 'नाशस्य नित्यत्वाद् न दोप' इति चेत्र ? तर्हि सदानाशे न तत्स्थितिः प्रथमक्षणेऽपि भावस्य स्थिति स्यात् ।।१२।।
अभाव-प्रसत् याने जो तुच्छ वस्तु है वह मावात्मक सद्र्य नहीं हो सकता क्योंकि असत् शशशङ्ग में भावत्व का निश्चय शक्य नहीं है । इसी प्रकार भावात्मक-सत्-प्रतुच्छ वस्तु यह प्रभाव-तुच्छ-प्रसदप नहीं होता है क्योंकि यदि प्रभाव का भाव होना और भात्र का प्रभाव होना माना जायेगा तो शशशृङ्गावि अर्थ को उत्पत्ति को और पदार्थ नित्यतावादि के मत में नित्य माने गए अाफाश प्रादि के विनाश को प्रापत्ति होगी । ११॥
(संदर्भ:-अब १२ से ३८ कारिकासमूह में “भादो नाभावमेतीह" इसो अंश को उपपत्ति विस्तृत पूर्वपक्ष-उत्तरपक्ष के रूप में की जा रही है।
कादाचित्क प्रसत्व पक्ष में भाव के पुनर्भाव या सवा प्रभाव की आपत्ति) १२ वीं कारिका से उक्त विषय को उपपत्ति की जा रही है जो इस प्रकार है
सत् अर्थात् क्षणिक भाव को द्वितीयावि उत्तरक्षण में यदि प्रसत् माना जायेगा तो उसका अर्थ होगा असत् को भी उत्पत्ति होती है क्योंकि क्षणिक भाव का प्रसत्त्व पूर्व में नहीं था और द्वितीयादि क्षणों में हवा । इसलिये असत्त्व कायाचित्कएमा अर्थात किसी काल में रहनेवाला और किसी काल में न रहनेवाला । जो कावाचिस्क होता है उसको उत्पत्ति होती है और जब प्रसस्व की उत्पत्ति होगी तो उसका नाश भी होगा, क्योंकि वह जन्य है, जन्य का नाश निश्चितरूप से होता है । फलतः, क्षणिकभाष का द्वितीय क्षण में जो प्रसत्व होगा-तृतीयक्षण में उस असत्त्व का भी नाश होने से प्रथम क्षण में उत्पन्न और दूसरे क्षण में नष्ट हुये क्षणिक भाव का तृतीय क्षण में अस्तित्व प्रसक्त होगा, क्योंकि यह नियम है कि- जिस वस्तु के असत्व के नाश का अधिकरण जो क्षरण होता है वह क्षण उस वस्तु का अधिकरण होता है । जैसे-न्यायवैशेषिक मत में तघटप्रागभाव रूप तद्घट का जो प्रसत्व है उसके नाश का अधिकरण क्षण प्रर्थात तद्घटोत्पत्तिक्षरण सघट का अधिकरण होता है।
यवि यह कहा जाय कि "सत्त्व का ही उत्पाद और नाश होता है, किन्तु प्रसत्त्व के नाश का केवल उत्पाद ही होता है नाश नहीं होता, इसलिये नाश के नित्य अनश्वर होने के कारण नाश का