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स्या का टीका और हिन्दी विवेचना ]
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न चायं भ्रान्त इत्याह
स्वरसंवमनUिTE च सालोपनियापि ।
अल्पना युज्यते युक्त्या सर्वभ्रान्तिप्रसङ्गतः ॥११॥ न चायंबोधान्धयः,-भ्रान्तः भ्रान्तिविषयः, इत्यपि कल्पना (युक्त्या) युज्यते । कुतः ? इन्याहः स्वसंवेदनसिद्धस्वात्-म्ब संविदितज्ञानपरिच्छिन्नन्वान् , अध्यक्षप्रमितस्यापि भ्रान्तत्वे, सर्वभ्रान्तिप्रसङ्गना-घटादीनामप्यसवापत्या प्रमाण-प्रमेयादिविभागांमछेदप्रसं. गात् ॥११३॥
प्रत्यक्ष होता है उस काल में उन विषय विद्यमान न होने से उन विषय रूप कारणों के प्रभाव में योगो का प्रत्यक्ष दुघट होगा।
(एक प्रमाता को सदेव एक हो उपयोग स्वीकार्य ) यवि यह कहा जाय कि-'तब तो ऐसा मानने पर एक प्रमाता में एक ही उपयोग सिद्ध होगा क्योंकि उसी का विभिन्नाकार ज्ञानों में परिणाम होता रहेगा और उन्हीं ज्ञानों से सपूर्ण व्यवहार को उपपत्ति हो जायगी'-तो यह कथन अपेक्षया स्वीकार्य है। एक प्रात्मा का उपयोग-प्रात्मद्रव्य रूप में
है किन्तु उस में रूपभेद को षिच्युति यानी 'बना रहमा' अनुभवसिद्ध है, अत एव उस के रूपमेव का अस्वीकार नहीं किया जा सकता और उस अनुभव के कारण हो बिभिन्न रूपों से उपेत अंक उपयोग का अंक प्रास्मा में अस्तित्व मानने में कोई विरोध नहीं है । यह विषय घर और घटादिपर्याय एवं तृष्य के द्रष्टान्त से सुखबोध्य है। प्राशय यह है कि-जैसे घर, कपाल, पिण्ड, प्रादि रूपों में एक हो मिट्री तुक्ष्य का प्रत्यय होता है उसी प्रकार एक प्रमाता में होनेवाले विभिन्नाकार झानों में उस प्रात्मतव्य के प्रभिन्न रूप में बतमान एक उपयोग का ही अन्वय होता है ।।११२॥
११३ वीं कारिका में विभिन्नाकार ज्ञानों में एक बोध के अन्बयप्रतीति को भ्रमरूपता का निराकरण किया गया है
कारका का अर्थ इस प्रकार है-"मुहत्तमात्रमहं एकविकल्पाकारपरिणत एषासम्' इस अनुभव में जो मुहत पर्यन्त होनेवाले कानों में एक बोधान्यय का भान होता है वह प्रनुभव उस अंश में सम है । अतएव भ्रम का विषय होने से विभिन्न ज्ञानों में एक बोध का मन्वय अमान्य है।" बौद्ध को यह कोरी कल्पना है, क्योंकि यिमिन्न झानों में एक बोध का अन्वय स्वसवेदो उक्त प्रत्यक्षात्मक अनुभव से निश्चित है। कहने का प्राशय यह है कि ज्ञान विषय के सवेवन के साथ स्वस्वरूप का भी संवेदन करता है। अतः उक्तअनुभव स्वसंवेदी होने से विभिन्न मानों में एक बोध के प्रन्यय की अपनी प्राहकता का भी ग्राहक है । उक्त अनुभव का उत्तरकाल में बाध न होने से यह प्रमात्मक है इसलिए उस ज्ञान से जो विषय गृहीत होता है वह अमान्य नहीं हो सकता। भ्रमात्मक ज्ञान भो स्वसवेदि होता है किन्तु उत्तरकाल में उस का बाप होने से उस का बाधितमर्थनहिस्वरूप सिद्ध होता है और वह ज्ञान के स्वसवेदित स्वभाव के कारण प्रपने उसी स्वरूप को ग्रहए करता है प्रतः उस का विषय प्रसत्य होने से प्रमान्य होता है, किन्तु अबाधित प्रत्यक्ष के द्वारा ग्रहीत इथं को भ्रम का विषय नहीं माना जा सकता, फिर भी ऐसा मानने पर सपूर्णज्ञान से गृहीत विषयों में भ्रमविषयता को प्रसक्ति