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[ शा वा० समुच्चय त०४ श्लो, ११२
न च म्वतन्त्राग्नि धमाधुपयोगभेदवदत्रापि तद्भेद इति कुचोधमाशंकनीयम् , एकमामग्रीप्रभवैकविचागणीभूनाकारभेदेऽप्यजिनो न भेद इन्युक्नत्वात् । न चाऽन्यादिविषयकारणभेदान मामग्रीभेदः, योग्यतातो विषयप्रतिनियमोपपत्ती विषयस्याध्यक्षाऽहेतुत्वात , अन्यथा योगिज्ञानस्याऽवर्तमानार्थवाहित्वानुपपत्तेः । अथैवमेकत्र प्रभातरि एक एकोपयोगः म्यात , तदाकारमेदादखिलव्यवहारोपपत्तेरिति चेत् ? सत्यम् , घटादमृदादिरूपतयेयात्मद्रव्यतयेक्येऽप्यविन्यतिरूपभेदस्यानुभवसिद्धत्वेनाऽविरोधादिति दिन ॥११॥
मौर उत्तरक्षरणत्तियोग्यविभूविशेषगरण में इस प्रकार का नाम्य-नाशक भाव नहीं बन सकता कि विभु विशेष गुण स्वाम्यवहित पूर्ववृत्ति योग्य विभु विशेषगुण का नाशक है अथवा योग्य विभु दिशेषगुण स्वाम्यवाहितउत्तरक्षणवृत्ति विभु विशेषगुण से नाश्य है । फलत: योग्यविभु विशेषगुण और विभु विशेषगण में नाश्यनाशकभाष को कल्पना विशेष रूप से ही करनी होगी, अर्थात् इस प्रकार नाश्यमाशक भाव बनाना होगा कि तत्तद्योग्य विभुविशेषगुण के नाश के प्रति तत्तद्विभुविशेषगुग और विशेषगुणों में सामान्य माश्य-नाशक भाव न बन सकने से किसी योग्य विभु-विशेषगुण का नाश उस के उत्तरवत्ति विशेषगुण से बना नहीं प्रसक्त हो सकता किन्तु जिम योग्यविभुविशेषगुण का स्थय जिस काल तक युक्ति या अनुभव से प्राप्त होता है उस के उत्तरक्षण में होनेवाले विभुविशेष गुण से ही जसका नाश माना जायगा। प्रत एवं 'मुहर्तमानमहमेकविकल्पपरिणत प्रासम्।' इस अनुमय से प्रास्मा में महतं पर्यन्त एकविकल्पात्मक परिणाम की सिद्धि में कोई बाधा नहीं हो सकती। इस विषय का विशेष विचार अन्यत्र दृष्टव्य है।
[ अंगभेद होने पर भी अंगी का भेद नहीं ] यदि यह कुशंका को जाय कि-'जैसे अन्यत्र स्वतन्त्र अग्नि का और धम का उपयोग मिन्न भिन्न होता है उसी प्रकार अनुमाता के अग्नि के और धम के उपयोग में भी भेद प्रावश्यक है- तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि एक सामग्रो से उत्पन्न और एक विचार के अंगभूत प्राकारों में भेद होने पर भी अंगो में भेद नहीं होता है यह कहा जा चुका है। प्रकृत में भी अग्निज्ञान-धूमज्ञान एक सामग्नीप्रसव एवं एकविचार का अंग है। इसलिए अग्निप्राकार-धमाकार में भेव होने पर भी उन ज्ञानों के रूप में परिणत होनेवाले उपयोगात्मक अंगो में अमेव हो उचित है । यदि यह कहा जाय कि-'एक व्यक्ति को मो प्रग्नि का और धम का प्रत्यक्षात्मक ज्ञान होता है उस में भी सामग्रीभेद होता है क्योंकि प्रत्यक्ष के प्रति विषय कारण होने से अग्निप्रत्यक्ष की सामग्री में प्रग्ति का प्रवेश और धम प्रत्यक्ष की सामग्री में धम का प्रवेश होता है तो यह ठीक नहीं क्योंकि तत्तत्नध्यक्षीयविषयता का प्रतिनियम तत् तत् अध्यक्ष के विषयीमधन की योग्यता से ही उपपन्न हो जाता है अतः प्रत्यक्ष के प्रति विषय को कारण मानने में कोई युक्ति नहीं रह जाती। प्रतः अध्यक्ष की सामग्री में विषय का प्रवेश प्रसिद्ध होने से पग्निप्रत्यक्ष और धूमप्रत्यक्ष का सामग्रीभेव प्रसिद्ध है। यह भी ज्ञातव्य है कि प्रत्यक्ष के प्रति विषय को कारण मानने में मात्र युक्ति का प्रभाव को नहीं है, अपितु बाधा भी है. क्योंकि प्रत्यक्ष के प्रति विषय को कारण मान लेने पर योगी को भूत और भविष्य, यानी वर्तमान में विद्यमान विषयों का वर्तमानकालीन प्रत्यक्ष नहीं हो सकेगा, क्योंकि जिस काल में योगी को भूत-भविष्य विषयों का