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स्या का टीका-हिन्दीविवेचना ]
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सत्वेऽपि नेन्द्रियज्ञानं हन्त ! तदुगोचरं मतम् ।
दिविज्ञयत्वमित्येवं क्षणभेदे न तत्वतः ॥१३६।। सत्वेऽपि सामान्यस्य नेन्द्रियज्ञानम् , मनोज्ञानोपलक्षणमेतत्, हन्त ! तद्गोचरंसामान्यगोचरं मतम् अङ्गीकृतम् स्वलक्षणविषयत्वेन तदभ्युपगमात् । उपसंहरमाह-इत्येवं उक्तप्रकारेण क्षणभेदे तत्वतः परमार्थतः द्विवियत्वं न शोभत ।
ननु शोभत एव, 'घट-पटयो रूपम् इत्यादौ नैयायिकादीनां रूपे प्रत्येकमुभयवृत्तित्वान्धयवत् प्रत्येक द्विविज्ञेयत्वान्वयोपपत्तेः, न हि तेषां रूपत्वे घट पटोभयवृत्तित्वान्वयः, रूपस्वस्य द्रव्याऽवृत्तित्वादिति चेत् १ न, तेषामपि सामान्यविशेषरूपवस्त्वनभ्युपगमे एतदन्वयानुपपत्तेः । संग्रहनयाश्रयणेन घट-पटोभयरूपसामान्योद्भूतत्वविवक्षयैव तदुपपत्तेः । अन्यथोद्भूतैकद्वित्वक्रोडीकरणेनेकतापमयोर्घट-पटयोवृत्तित्वान्वयाऽयोगात् द्वित्वाद् द्वयोर्भेदविवक्षणेन प्रत्येकान्वयस्य तु तदाधेयद्वित्वनिरूपक्रधर्मयावच्छिभवाचकपदोपसंदानस्थल एव व्युत्पन्नत्वात् , यथा 'घटपटयोः घटपटरूपे' इति ।
१३६ वी कारिका में रूपादि में सामान्य की अपेक्षा भो द्विविज्ञेयता नहीं बन सकती इस तथ्य का प्रतिपावन किया गया है
[सामान्यविषयक ज्ञान का बौद्धमत में प्रसंभव ] सामान्य का स्वीकार कर लेने पर मो सामान्य के अभिप्राय से भी रूपादि में द्वीन्द्रियविज्ञेयता का कथन संगत नहीं हो सकता । क्योंकि बौद्धमतानुसार इन्द्रियजन्य, प्रौर मनोजन्य जान सामान्यविषयक नहीं हो सकता क्योंकि इन्द्रिय और मन को बौद्धमत में स्वलक्षण बस्तुका ग्राहक ही स्वीकार किया गया है। प्रतः उक्त प्रकार से पूर्वोत्तर रूप क्षरसों का भेद होने से रूपावि सस्थ अर्थ में द्विविजेयता नहीं संगत हो सकतो । .
[ 'घट-पदयो रूपं इस की नैयायिक मत में भी अनुपपत्ति यदि बौद्ध की ओर से नयायिकों का हस्तावलम्ब प्राप्तकर यह कहा जाय कि 'प्रत्येक रूपावि में द्वीन्द्रियविशेषत्वान्वय उसीप्रकार संगत हो सकता है, जैसे न्यायमतमें 'घटपटयो रूपम्' इस वाक्यजन्य बोध में रूप में घटपटोभयान्तर्गत प्रत्येकात्तित्व का अन्वय होता है, क्योंकि रूपत्व में द्रश्यत्तित्व न होने से रूपत्व में घट पटोभयत्तित्व का अन्वय नहीं हो सकता'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि नैयायिक के मत में भी सामान्य विशेषोभयात्मक वस्तु का स्वीकार न करने के कारण 'घटपटयो रूपम्' इस स्थल में अन्वय की अनुपपत्ति अपरिहार्य है। उस को उपपत्ति संग्रहनय के प्राश्य से रूप शब्द से घटरूप पटरूप इस उमयरूपसाधारण रूपसामान्य को प्रधान रूप से विवक्षा करने से ही हो सकती है। प्राशय यह है कि प्रत्येक वस्तु सामान्यविशेष उमयात्मक होती है किन्तु सामान्यात्मक रूप से अन्य व्यक्ति के साथ भी उस का सम्बन्ध होता है। अत: घररूप पटरूप अपने विशेष रूप से सो घट पट में प्रसग प्रलग ही वृत्ति होते हैं। किन्तु अपने सामान्य रूप से पट और घट उमय में वृत्ति भी होते हैं । अतः 'घटपटयोः रूपम्' इस स्थल में रूप शब्द से प्राधान्येन रूप स.मान्य को विवक्षा करने