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[ शापा समुचय स्त०४-रलो. १३४
भवति । तदाह न्यायवादी-"स्वविषयानन्तरविषयसहकारिणेन्द्रियज्ञानेन समनन्तरप्रत्ययेन जनितं मनोविज्ञानम्" इति ॥१३३।। निगमयति
एवं ध न विरोधोऽस्ति द्रिविज्ञेयस्वभावतः ।
शालामणि मे पापादेयपसलसम् ॥१३४॥ एवं च न्यायात् उक्तयुक्तेः, पश्चानामपि रूपादीनाम् द्विविजेयत्वभावत: इन्द्रिय-मनोविज्ञेयत्वोपपत्तेः, न विरोधोऽस्त्युक्तवचनस्य इति चेत् १ अत्रोत्तरम् एतदपि उक्तम् असमजसम्-अयुक्तिमन् ।।१३४। कुतः ? इत्याह
नकोऽपि यद विविज्ञेय एककेनव वेदनात्।
सामान्यापेक्षयेतच्धेन तत्सत्त्वप्रसगतः ॥१३५॥ यद यस्मात् कारणात् एकोऽपि पश्चानां मध्य एवं न द्विविज्ञेयः, ऐककेन-इन्द्रियज्ञानादिना 'एतदुत्तरं एकैकस्य इति शेपः, एककस्यैव वेदनात् । तथा च न केचिद् द्विविझेपत्तमित्यर्थः । परः शङ्कते-सामान्यापेक्षया रूपादिसामान्यापेक्षया एतत् द्विविज्ञेयत्वम् चेत-यदि उपपद्यते 'तदा को दोपः, इत्युषस्कारः । अत्रोत्तरम-नैतदेवम् तरसत्व प्रसगत सामान्यसत्त्वप्रसंगात् ॥१३५॥ सत्वेऽपि दोषमाह
ज्ञानरूप समनन्तर प्रत्यय से उत्पन्न होनेवाले मनोविज्ञान से जय होने में ही बुद्धोक्त 'द्विविय' वचन का तात्पर्य है। जैसा कि न्यायवादी धर्मकोति ने कहा है मनोविज्ञान अपने विषयभूत रूपादि के अनंतर प्रत्यवहितपूर्वरूपादि विषय से सहकृत इन्द्रि यजन्य ज्ञान रूप समनन्तर प्रत्यय से उत्पन्न होता है ।।१३॥ १३७ वीं कारिका में उक्त प्रर्थ का उपसंहार बताया गया है
उक्त युक्ति से रूपादि में द्विविजेयत्व को उपपत्ति होने से भाव के क्षणिकता पक्ष में बुद्ध के उक्त वचन का विरोध नहीं हो सकता है । ग्रन्थकार का कहना है कि यह कथनयुक्तिहीन है। १३॥ १३५ वो क.रिजा में पूर्व कारिका सकेतित युक्तिवैकल्य को स्फुट किया गया है
[विविधेयता उपपादक बौद्ध प्रयास को निष्फलता ] उक्तरूप से रूपादिविषयों में द्विविज्ञेयता का उपपादन असंगत है क्योंकि रूपादि पांचों विषयों के मध्य में कोई भी विधा उक्त रोनि से द्विविज्ञेय सिद्ध नहीं होता क्योंकि एक ही रूपादि व्यक्ति का एक हो इन्द्रिय से ज्ञान सिद्ध होता है । यदि यह कहा जाय कि पूर्वोत्पन्न धाषाविज्ञान से रूप ही गृहीत होता है प्रोर पवाद उत्पन्न मनोविज्ञान से भी रूप हो गहीत होता है प्रतः प्रातिस्विक यानी व्यक्तिगत रूप से रूप व्यास दोन्द्रिय विनय न होने पर भी रूप सामान्य की अपेक्षा द्वोन्द्रियविज्ञेयता सिद्ध हो सकती है क्योंकि रूपादि के द्वोन्द्रियविज्ञेयता का तात्पर्य रूप सामान्य की द्वीन्द्रियविज्ञेयता में है। तो यह बौद्ध को ष्टि से ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर सामान्य का अस्तित्व स्वीकार करना प्रयरिहार्य है क्योंकि पूर्वोत्तर रूप व्यक्ति में स्थायिरूपसामान्य माने विना सामान्य को अपेक्षा रूपारि में द्विविजेमता का समर्थन नहीं हो सकता ॥१३५।।