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स्या० का टीका और हिन्दी विवेचना ]
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यत्सु-'घट-पटयोर्न रूपम्' इति वाक्यं तात्पर्यभेदेन योग्याऽयोग्यम् , घट पटयो रूपत्वावच्छिन्नाभावान्ययतात्पर्गेऽयोग्यमेव, रूपत्वावच्छेदेन घट-पटोमयवृश्चित्वाभावान्वयतात्पर्य च योग्यमेव । 'घट-घटयो रूपम्' इत्यादौ च (द्ववृत्तित्वस्यापि रूपस्वादिसामानाधिकरण्येनाऽन्वयबोध एव साकांक्षत्वे तु एतयोघंटरूपम्' , इत्यपि स्यात्-इति परेषां वासनाविजम्भितम्, तदसत, उमयरूपसामान्यस्य प्रत्येकरूपविशेषात् कथञ्चिद् भेदानभ्युपगमे व्युत्पत्तिभ्रमात् 'घटपठयोघंटरूपम्' इति जायमानस्य बोधस्य प्रामाण्यापत्तेः, मम तु स्यादंशबाधेन तदभावात् । प्रत: जब रूपद से विभिन्न रूप विवक्षित होगा तो उमय रूप में मिलितवत्तिस्थ यानी घट पटोभयवृत्तित्व न होने से घटपटयोरूपम्' इस स्थल में अन्वयानुपपत्ति का परिहार नहीं हो सकता।
( व्यवहार नय में 'पञ्चविधः' प्रदेशःप्रयोग मान्य ) इसीलिये व्याख्याकार के अपने 'नयरहस्य' ग्रन्थ में स्पष्ट रूप से यह बताया गया है कि व्यवहारनय के मत में 'पञ्चानां प्रदेशः' यह वाक्यप्रयोग नहीं हो सकता क्योंकि 'पञ्च पक्ष से प्रदेश के विभिन्न पाँच प्राश्रयों का बोध होता है प्रत एवं प्रवेश शब्द से भी पांच प्रवेश की विवक्षा प्रावश्यक होती है और पांचों प्रदेशों में पांचों प्रदेशीयों का सम्बन्ध नहीं होता, अत: व्यवहार नब में पञ्चामा प्रवेस: ऐसा व्यवहार न होकर 'पञ्चविधः प्रदेश: ऐसा व्यवहार होगा। इसीलिये स्वाद घटपटयोन रूपम्' और 'स्याद् घटपटयो रूपम्' इस वाक्य में प्रथम बाक्य संग्रहनय तात्पर्यक है. तथा दूसरा वाक्य व्यवहारनयतात्पर्य है, इस प्रकार तात्पर्यभेव के जान से कम से दोनों वाक्यों से विधिनिषेध का अन्वय अनुभव उपपन्न होता है । यह ध्यान रहे कि भिन्नतय से उत्पन्न होनेवाले बोध में भिन्न नय जन्य बोध प्रतिबन्धक नहीं होता। प्रतः उन दोनों वाक्यों से उत्पन्न होनेवाले बोष के परस्पर विधिनिषधविषयक होने पर भी पूर्व से उत्तर का प्रतिबन्ध न होने के कारण कम से उन दोनों के होने में कोई बाधा नहीं होती । प्रपितु उन दोनों से जो महावाक्यार्थबोध होता है उसमें प्रत्येक वाक्यजन्यबोध सहायक ही होता है क्योंकि महावाक्यार्थ बोध में प्रवान्तर वाक्यार्थज्ञान कारण होता है। उक्त वाक्य से उत्पन्न होनेवाले महावाक्यार्थ बोध का प्राकार यह होगा कि-कश्चित् घटपटोमयनिरूपित वृत्तिता बाला रूप कथंचित घटपटोभयनिरूपित वृत्तिताऽभाववाला है।
[ तात्पर्यभेद से योग्याऽयोग्यता का उपपादनप्रयास ] इस सन्दर्भ में यदि यह कहा जाय कि 'घटपटयोन रुपम्' यह वाक्य तात्पर्य मेष से अयोग्य यानी अप्रमाण और योग्य यानी प्रमाण भी होता है। जैसे घटपटोमय में रूपसामाग्याभाव के प्रन्यय में तात्पर्य होने पर यह वाक्य अयोग्य ही है। क्योंकि घट-पटोमय में किसी एक ही रूपविशेष को प्रधिकरणता न होने पर भी रूपसामान्य की अधिकरणता होती है और पसामान्य की अधिकरणता रूपत्वावच्छिन्नामावरूष सामान्यामाव का विरोधी है प्रतः पटपटप में माभित रूप सामान्यामाव के प्रत्यय में तात्पर्य होने पर 'घटपटयोन रूपम्' इस वाक्य का मप्रामाण्य कम है। तथा रूपत्वावच्छिन्न में घटपटोभयसिश्वाभाव के अन्य में तात्पर्य मानमे पर उक्त साम्य योग्य हो