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[ शा. वा० समुचय स्त० ४ श्लो० १२३
किश्च, एवं 'द्वयोर्गुरुत्वं न गन्धः' इत्यादी का गतिः, गुरुत्वसामानाधिकरण्येनेव गन्धत्वसामानाधिकरण्येनापि पृथिवी-जलोभयत्वाश्रयवृतित्वसाम्यात् , विधिनिषेधविषयार्थाsनिरुक्तेः ? । अत्र सप्तम्याः स्वार्थान्वयितावच्छेदकस्वरूपा तत्समव्याप्यातिरिक्तव वाऽऽधेयताऽर्थः, तत्र च प्रकृत्यर्थस्य तनिष्ठनिरूपिनत्वविशेषणान्वयात् , पृथिवीजलोभयविशिष्टाधेयताखेन गुरुत्वं विधेयतया, गन्धश्च निषेध्यतया प्रतीयत इत्यक्तौ च नामान्तरेण गुरुत्वसामान्यस्यैव विधेयत्वम् , गन्धसामान्यस्यैव च निषेध्यत्वमुक्तमायुष्मता अतिरिक्ताधेयताऽनिरूपणात् ।
है-क्योंकि रूपविशेष से अतिरिक्त रूपसामान्य अप्रामाणिक है। अतः जब रूपविशेष में घटपटोभय कृत्तिस्वाभाव है तो रूपसामान्य में भी घट-पटोभयवृत्तित्वाभाव निर्वाध है।
इस के विरुद्ध यह कहना कि-'घटपटयो रूपम्' यह धाक्य रूपत्वसामानाधिकरप्येन घटपट. गतउभयत्ववत्तित्व के हो अन्वयबोध में साकांक्ष है, प्रत एव 'घटपटयोर्न रूपम्' इस वाक्य से रूपत्वावच्छेदेन घटपटोमयत्तित्वाभाव का बोध नहीं माना आ सकता। अतः उक्त बोध में तात्पर्य मान कर उक्त वाक्य को योग्य कहना असंगत है-ठीक नहीं है क्योंकि 'घटपटयो रूपम्' इस वाक्य को रूपत्वसामानाधिकरण्येन घटपदोभयरवववत्तित्व के अन्वय बोध में साकांक्ष मानने पर 'घटपटयो घटरूपम्' यह वाक्य भी प्रमाण हो जायगा, क्योंकि घटरूप में घटपटोमयत्ववटवृत्तित्व अबाधित है।
तो यह कथन व्याख्याकार के प्रनुसार बासनामात्रमूलक होने से प्रसत है क्योकि घटपट उभयानुगत रूपसामान्य में घटपट के प्रत्येक रूप का कश्चित् भेद न मानते हुये प्रत्यन्ताभव मानने पर 'घटपटयोघंटरूपम्' इस वाक्यजन्य बोध में भी प्रामाण्य की प्रापत्ति होगी। क्योंकि जब रूप सामान्य और रूपविशेष में अत्यन्ताभेद है तो रूपसामान्य में घटपट उभयत्तित्व होने से रूप सामान्य से भभिन्न घटरूप में भी घटपटोमयत्तित्व का अन्वय अबाधित है । व्याख्याकार ने 'घटपरयोघररूपम्' इस वाक्यजन्यबोध में प्रामाण्यापत्ति का मूल व्युत्पत्तिभ्रम को बताया है और व्युत्पत्तिभ्रम का अर्थ है 'रूपसामान्य में रूपविशेष का प्रत्यन्ताभेद है अतः रूप सामान्य में घटपटोमयत्तित्य होने से रूपविशेष में भी घटपटोभयत्तित्व का अन्वय निर्बाध है-ऐसा जान । यह जान इसलिये भ्रम है कि यह रूप सामान्य में रूप विशेष के बाधितात्यन्तामेव को ग्रहण करता है। व्याख्याकार ने साथ ही यह भी स्पष्ट कर दिया है कि जैन मत में उक्तबोध के प्रामाण्य की प्रापत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि उक्तबोध रूपसामान्य में रूपविशेष के कश्चित् भेद के विरोधी रूपसामान्य में रूपविशेष के प्रत्यन्तामेव पर निर्भर है। अतः स्यावंश कश्चिभेद का बाघ होने से बाधितार्थमूलक होने के कारण प्रमाण नहीं हो सकता।
[ द्वयोगुरुत्वं न गन्धः' इस के प्रामाण्य को अनुपपत्ति ] - इस सन्दर्भ में यह भी विचारणीय है कि 'घटपटयोरूपम्' यह वाक्य यदि रूपत्वसामानाधिकरज्येन घटपटोमयत्वाश्रयत्तित्व के प्रन्वय बोध में साकांक्ष माना जायगा तो 'द्वयोरुत्वं न गन्धः' इस वाक्य के प्रामाण्य का समर्थन नहीं हो सकता। क्योंकि इस वाक्य का अर्थ है कि गुरुत्व पृथिवीजल उमय में वृत्ति है और गन्ध पृथ्वोजलोभप्रवृत्ति नहीं है । इसका समर्थन इसलिये नहीं हो सकता कि 'घटपटयोरूपम्' यह वाक्य रूपत्वसामानाधिकरण्येन घटपटोभयत्वववृत्तित्व के प्रत्यय बोध में