________________
२१२ ]
[ शा. बा. समुच्चय स्त०४ इलो० ११८
स्वभावानित्वेन मृदि घटाभिन्नत्वं स्फुटमेव प्रतीयतेः घटादतिरिक्ते जनने निरूपितत्व संबन्धकल्पने तत्रापि संबन्धान्तरकल्पनेऽनवस्थानात् अभेदे च चित्रप्रतीतेर्भेदानुवेधेन समाधानात्, तथोन्मुखेन प्रतीतेस्तथाक्षयोपशमाधीनत्वात् । न चैवं मृद् घटीभृता' इतिवद् दण्डोऽपि भूतः इति व्यवहारः स्यात् तज्जननस्वभावत्वघटका मेदाऽविशेषादिति वाच्यम्, तस्य तज्जनन स्वभावत्वव्यवहारनियामकत्वेऽप्युपादानत्वघटका मेदस्यैव व्यर्थत्वादिति दिग् ॥ ११८ ॥ शब्दार्थ का निरूपितत्वसंज्ञक स्वरूपसम्बन्ध जिसे तादात्म्य और प्रभेद भी कहा जा सकता है उससे अन्वय होता है । इस प्रकार उक्त व्यवहार से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि घट से भिन्न जनन, जनन
,
अभि स्वभाव और स्वभाव से अभिनय होने से हो ग्रथ्य घट से श्रभिन्न होता है । जनन को घट से अतिरिक्त मान कर यदि उसके साथ घटकर निरूपितत्व सम्बन्ध माना जायगा तो यह निरूपितत्व यदि घट और जनन दोनों से भिन्न होगा तो निरूपितश्व को उन दोनों से जोडने के लिए अन्य सम्बन्ध को कल्पना करनी पड़ेगी। क्योंकि निरूपितत्व यदि घट और जनन दोनों से स्वयं प्रसम्बद्ध रहेगा तो वह दोनों को सम्बद्ध नहीं कर सकेगा। इसी प्रकार निरूपितत्व का जो सम्बन्ध माना जायेगा उसके लिये भो उक्त न्याय से ही सम्बन्धान्तर की कल्पना आवश्यक होने से अनवस्था होगी। प्रतः जनन को घट से भिन्न न मानकर उसमें स्वरूप नामक अथवा तादात्म्यनामक निरूपितत्व सम्बन्ध की कल्पना ही उचित है।
'जनन और घट में प्रभेद मानने पर “घटस्य जननं" इस प्रकार का व्यवहार श्रनुपपन्न होगा' यह शंका करना उचित नहीं है क्योंकि जनन में घट का अभेद भेद से अनुविद्ध हैं प्रर्थात् घट और जनन में कश्चित् भेदाभेद दोनों है । जैसे नीलपीतादिविषयक चित्राकार प्रतीति में विज्ञानवादी के मन में नील और पोत में ज्ञानात्मना श्रभेद और नील-पीताद्यात्मना भेद होता है । प्रतः घट और जनन में अभेद होने पर भी 'घटस्य जननम्' इस व्यवहार में कोई बाधा नहीं हो सकती । घट और जनन में प्रमेद मानने पर 'घटो जननम्' इस प्रकार की जनन में घटाभेद का उल्लेख करने वालो प्रतोति का भी प्रावादन नहीं किया जा सकता क्योंकि जिसे उस प्रतीति के लिये अपेक्षित क्षयोपशम है उसे वह प्रतीति होती ही है और जिसे तदनुलक्षयोपशम नहीं, उसे क्षयोपशम रूप कारण का प्रभाव होने से उस प्रतीति की प्रापत्ति नहीं हो सकती । यदि यह कहा जाय कि उक्त रोति से घटजनन स्वभाव से प्रभिन्न घट-कारण को यदि घटात्मक माना जायगा तो जैसे 'मुद् घटीभूता मिट्टी घट बन आती है' यह व्यवहार होता है उसी प्रकार 'इण्डोऽपि घटोभूतः दण्ड भी घट बन जाता है' ऐसे व्यबहार को भी प्रापत्ति होगी क्योंकि घटजनन स्वभावत्व के निरुक्त स्वरूप में जो प्रभेव प्रविष्ट है वह घट और मिट्टी द्रव्य तथा घट और दण्ड दोनों में समान है" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि तज्जननस्वभावत्वघटक प्रमेद और उक्त 'मृद्घटोभूता' व्यवहार का नियामक घटोपादानत्व घटक प्रभेद ये दोनों भिन्न है क्योंकि घटोपादानत्व घटक अभेद घटात्मना परिणामित्व रूप है और वह मिट्टद्रव्य में ही होता है- दण्ड में नहीं होता । व्याख्या में पूर्व प्रतियों में उपलब्ध 'घर्थ' शब्द के स्थान में 'तदर्थ' ऐसा पाठ होना उचित है। उस का अर्थ है कि घटोपादानत्वघटक अभेद ही घटोभूता' इस व्यवहार का तदर्थ है अर्थात् 'घटोभूता' इस व्यवहार का विषय है ॥१४८॥
-
* 'तदर्थ' इति तु योग्यं प्रतिभाति ।