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म्या० का टीका और हिन्दी-विवेचना ]
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तत तज्जन्यम्वभावमिन्यत्राप्येवमेवान्वयबोध इन्यनिदेशमाह-- मूलं-एवं नजन्यभाषत्वेऽप्येषा भाव्या विचक्षणः ।
नदेव हि यती भाव: स चेतरसमाश्रयः ॥११९॥
एवम् उक्तन्यायेन तज्जन्यभावत्वेऽपि-मृदादिकारण जन्यम्बमावन्वेऽपि घटादिकार्यस्योच्यमाने एषा = तद्भावसंगतिः भाव्या = पर्यालोचनीया विचक्षणै:न्यायझें। कुतः? इत्याह यन: यस्माद् हि-निश्चितम् तदेव - जन्यत्यमेव भावः = घटादेःम्बसनालक्षण:.स चतरसमाश्रयः मृद्रादिकारणम्वरूप इति । एवं च घटेऽभेदेन मृदन्वित जन्यत्वान्वितस्वभाबा. वाद् घटान्वय इति तात्पर्यायः ।।११९॥ उपमहरति
इत्येवमन्वयापत्तिः शब्दार्थादेव जायते ।।
अन्यथाकल्पनं चास्य सर्वथा न्याय बाधितम् ॥१२०॥ इत्येवम उक्नप्रकारेण शब्दार्थादेवउक्तवाश्यतात्पर्यालोचनादेव अन्वयापसि.= अन्वयधीः जायते । 'निरूपितत्वादेरमेदम्य वस्तुनः संमर्गत्वेऽपि साज्यापच्या सांसर्गिकज्ञानम्यानुपनायकत्वात् कथमन्वयापत्तिः' इति चेद ? मनोवाकिया गया जिन्नतियोगिकत्वादेग्विाक्षेपलभ्यत्वात् 'मृद् घटजननस्वभात्रा' इत्यादिवाक्याद् मृदि घटान्वयबोध. दर्शनात् अन्यथाकल्पनं चास्य-शब्दार्थस्य 'तत् तज्जननम्वभावम' इत्यादेः तदनन्तरं नझारः' इत्यादिरेवार्थः, तत्परिणामित्वबोधस्तु नौत्तरकालिकोऽपि, इत्यादिकल्पनं च सर्वधा = मर्य
११६ वीं कारिका में 'तत् तज्जनननस्वभावन-मवादि घटजननस्वभाव होता है-इस व्यवहार में उक्त अन्वय बोध के आधारभूत रीति का "लसज्जन्यस्व मालम् घटादि मुज्जन्य स्वभाब होता है।" इप्त व्यवहार में अतिदेश यानी उसको अवलम्बनीयता बतायी गयी है ।
जिस न्याय मे 'कारण में कार्यजननस्वभावत्व' के द्वारा कार्य में कारण के अन्वय की उपपत्ति बतायी गई है उसी प्रकार स्थायज विद्वानों को कार्य कारणजन्यस्वभाव होता है। इस मान्यता के वारा भी कार्य में कारण के अन्वय की उपपत्ति समझनी चाहिये। क्योंकि घटाविकार्य में जो मिट्टी प्राविअन्यत्व स्वभाव है वह स्वभाव भो मिट्रोमादिजन्यत्व रूप ही है। मिट्रो प्रावि जन्यत्व का अर्थ मिट्टोप्रादि में घटादि का सद्भाव । मिट्टी प्रावि में घटादि के सद्भाव का अर्थ है घटादि का मिट्टो प्रादिकारणस्वरूपत्व क्योंकि घटात्मक अवस्था के प्रादुर्भाव के पूर्व घटादि के मिट्टीमादिरूप होने के अतिरिक्त घटादि की कोई दूसरी सत्ता नहीं उपपन्न हो सकती । इस प्रकार 'घट मज्जन्यस्वरूप है। इस व्यवहार से होनेवाली प्रतीति में जन्यत्व में मुद् का अमेव सम्बन्ध से एव जन्यत्व का स्वभाव में प्रमेव सम्बन्ध से और समाव का घट में प्रभेद सम्बन्ध से अवय होने से घट और मब में अभेवान्वय की सिद्धि होती है ॥११६ ।
१२०ी कारिका में पूर्व वो कारिकाओं के उक्त विचार का उपसंहार किया गया है