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झ्या क० टीका-हिन्दी विवेचना ]
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ल्पकज्ञानानुभवम्यापलोतुमशक्यत्वात् । न हि शब्दसंसर्गप्रतिमास एव सविकल्पकत्वम् , सद्योग्यावभासस्यापि कल्पनात्वाभ्युपगमात् , अन्यथाऽव्युत्पन्नसंकेतस्य ज्ञानं शब्दसंमर्गविरहात् कल्पनावद न स्यात् । अवश्यं च शब्दयोजनामन्तरेणाप्यर्थनिर्णयात्मकमध्यममुपगन्तव्यम् , अन्यथा विकल्पाध्यक्षेगा रिजस्याऽगनिर्गमा समानद सकिने स्वस्थानात् अनुमानम्याऽप्पच्छेदप्रमङ्गात् ।
[ बौद्ध विकल्पप्रवस्थानिवृत्ति में निर्विकल्प का उदय होता है ]
यदि यह कहा जाय कि सम्पूर्ण विकल्पावस्था से निवत्त अर्थात किसी भी प्रकार को काल्पनिक अवस्था को ग्रहण न करने वाला और पुरोवत्ति वस्तु मात्र को ग्रहण करने वाला इन्द्रिय जन्य विशदज्ञान ही कल्पना से उपरत यानी कल्पना से रहित होने के नाते निविकल्प होताहोर वह प्रत्यक्षानुभवसिद्ध है। जैसा कि विद्वानों कहा है कि कल्पना से मयत यानी काल्पनिक पदार्थ को ग्रहण न करने वाला ज्ञान ही प्रत्यभ-निर्विकल्पक प्रत्यक्ष है और वह प्रत्यक्ष प्रमाण से ही सिद्ध है । यही बात 'संहृत्य सर्वतः' इस कारिका में इस प्रकार कही गई है कि-मनुष्य सारी चिन्तानों का संहरण करके प्रर्थात् सम्पूर्ण विषयों से चित्त को हटाकर निश्चल चित्त से स्थिरभाव से जय चक्षु मे किसो रूपको देखता है त रूप को वह इन्द्रियजन्य बुद्धि निर्विकल्पक प्रत्यक्ष कही जाती है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि निर्विकल्पक प्रत्यक्ष यही होता है जिसमें किसी काल्पनिक अर्थ का भान नहीं होता । सुगत का ज्ञान यत: किसी काल्पनिक अर्थ को विषय नहीं करता प्रतः वह सविकल्पक नहीं है। एवं स्वप्नवशा में जो स्मृतिमूलक ज्ञान होता है असे पुरोतित्व रूप से हस्तीनादि का ज्ञान-वह सम्पूर्ण विकल्प अवस्था से मुक्त नहीं होता, अत एव वह न निर्विकल्पक होता है न विशदायमासी होता है। अतः यह निविवाय है कि वेशद्य निविकल्पक का हो स्वभाव है । अतः जो सविकल्पक निवि. कल्पक के बाद में उत्पन्न होसा है उसमें हो निर्विकल्प के वंशय का आरोप होता है।
[विकल्प अवस्था निवृत्ति में सविकल्प का भी उदय सिद्ध है ]
किन्तु यह ठीक नहीं है, क्योंकि सम्पूर्ण विकल्पावस्था को प्रभाव दशा में भी सविकल्पक ज्ञान की अनुभूति होती है, जैसे गौ के साथ चक्षु का संनिकर्ष होने के बाद पस्यूल: गौःपुर:स्थितः" इस प्रकार के ज्ञान का होना सर्वानुभवसिद्ध है। इस ज्ञान में विषयमूत कोई भी वस्तु काल्पनिक नहीं है। वयोंकि क्षणिक बाह्यार्थवादी बौद्ध के मत में भी वस्तु उत्पत्तिक्षण में पुरःस्थित होतो है और किसी रूपाति को समष्टि को अपेक्षा अधिक रूपादि की समष्टि रूप होने से स्थूल मी होती है। इस शान में शम्दसंसर्ग का प्रतिभास नहीं होता, क्योंकि इस ज्ञान के समय उस ज्ञान के विषयभूत प्रथं का बोधक शम्ब ज्ञात नहीं होता। किन्तु उस ज्ञान का विषयभूत अर्थ शब्दसंसर्गयोग्य होता है क्योंकि वह पर्थ स्थूलता प्रादि धर्मो से भासित होता है । वस्तु निर्विकल्पकाल में ही शम्द संसर्ग के प्रयोग्य होती है, क्योंकि उस समय वस्तु में कोई भी धर्म गृहीत नहीं रहता ओर अर्थ में शम्द का संसर्ग धर्म द्वारा ही होता है। यह शान विशवायग्राहो है एवं अनुभवसिद्ध है अत: इसका अपलाप शक्य नहीं है इसलिये यह कथन कि पेशद्य निर्विकल्पक शान का ही धर्म है, सविकल्प में उसका मध्यारोप होता हैयुक्तिसंगत नहीं हो सकता।