________________
[शा. वा. समुच्चय स्त० ४ श्लोक-११३
फिञ्च, एवं तस्य प्रामाण्यमेवानुपपन्नं स्यात् , यत्रैव हि पाश्चात्यं विधि-निषेधविकल्पद्वयं तन्जनयति तत्रैव तस्य प्रामाण्यम् , विकल्पश्च शब्दसंयोजितार्थग्रहणम् , तत्संयोजना च शवासमाधीमा, शच संभाषच्छेदकप्रकारकसंबन्धिग्रहरूपार्थधीजन्यमिति । न चेदेवम् । गवानुभवादु गोशब्दसंयोजनवत् क्षणिकन्वानुभवात् क्षणिकाबशब्दसंयोजनापि स्याव । एतेन
[ सविकल्प ज्ञान में शब्दसंसर्ग भान न होने का कथन विथ्या है ]
यदि यह कहा जाय कि 'उक्तजान सविकल्पक नहीं है क्योंकि सविकल्पक ज्ञान वही होता है जिसमें शब्द संसर्ग का भान होता है। तो यह भी ठीक नहीं है-क्योंकि शब्दसंसगं को ग्रहण न करने वाला किन्तु शब्द संसर्ग योग्य अर्थ को ग्रहण करने वाला ज्ञान सविकल्पक माना जाता है। यदि शब्द संसग को ग्रहण न करने वाले ऐसे शब्ध संसगं योग्य अर्थ के ग्राहक मानको सविकल्पक नहीं माना जायगा तो जिस पुरुष को शस्वार्थ का संकेत ज्ञान नहीं होता है उस पुरुष का ज्ञान शब्द संसर्ग का प्रवभासक न होने से विकल्पक के समान प्रवर्तक-निवर्तक न हो सकेगा क्योंकि सविकल्पक ज्ञान ही प्रवर्तक निवक होता है । यदि शब्दसंसर्गप्रतिभासी शान को हो विकल्पक माना जायगा तो जिस ज्ञान में श-वसंसर्ग का प्रतिभास नहीं होता है वह सविकल्प प्रात्मक न होने से उसके समान प्रवत्तक-निवत्तक भी न हो सकेगा।
[अर्थनिर्णायक न होने पर निर्विकल्पक प्रत्यक्ष की प्रसिद्धि ] यह मो ध्यान देने योग्य है कि शम्खयोजना के बिना भो प्रत्यक्ष को अर्थनिर्णयात्मक मानना प्रावश्यक है, अन्यथा शब्द योजना युक्त हो अध्यक्ष को निर्णयात्मक मानने पर सविकल्पकग्राही निविकल्पक से, निर्विकल्पक होने से शम्दयोजनाहोन होने के कारण, निर्विकल्पक के अनुमापक सविकल्पकरूप लिग का निर्णय न हो सकेगा। आशय यह है कि करूपित नाम जाति प्रादि का ग्राहक होने से सविकल्प कल्पनात्मक-भ्रमरूप है । भ्रमरूप ज्ञान प्रधिष्ठानज्ञान से जन्य होता है, सविकल्प द्वारा गह्यमाण नाम जाति का अधिष्ठानभुत गो आदि अर्थ निर्विकल्प से गहोत होता है, अत: सविकल्पक प्रत्यक्षरूप कार्यात्मक लिग से अधिष्ठानात्मक निर्विकल्पप्रत्यक्षरूप कारण अनुमित होता है, शब्दयोजना युक्त ज्ञान को हो प्रर्य निर्णयात्मक मानने पर शब्दयोजनाहोन निविकल्पक से सविकल्पकज्ञान रूप लिंग का निर्णय न हो सकेगा, फलत: निर्विकल्पक की सिद्धि न हो सकेगो । यदि यह कहा आय कि-'उक्तबाधायशप्रत्यक्ष से सविकल्पक का निर्णय न हो सकने पर भी अनुमान से उसका निर्णय होगा, जैसे गो प्रावि का व्यवहार गो प्रावि के सविकरुपक का कार्य है, अत: गो प्रादि के ग्यवहार रूप कार्यात्मक लिग से उसके कारण सकविकल्पक रूप व्यवहर्तव्यज्ञान का अनुमान सुकर हैतो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष से व्यवहारात्मक लिंग का भी निर्णय सम्भव न होने के कारण उसके लिये अन्य अनुमान की अपेक्षा होगी । परिणामत: अनवस्था को प्रापत्ति होगी। इस प्रकार प्रत्यक्ष तथा अनुमान दोनों से सविकल्प रूप लिग का निर्णय प्रशक्य होने से निविकल्पक के अनुमान का मो लोप हो जाने की मापत्ति होगो इसलिये शम्दयोजना के प्रभाव में भी अध्यक्ष को मथंनिर्णयात्मक मानता आवश्यक है ।।
[ प्रत्यक्ष से क्षणिकत्वनिर्णय को प्रापत्ति ] यह भी ध्यान देने योग्य है कि यदि शब्दयोजना के बिना अध्यक्ष को प्रर्थनिर्णयात्मक न माना जायगा तो अध्यक्ष का प्रामाण्य ही अनुपपन्न हो जायगा, क्योंकि यह नियम है कि अध्यक्ष अपने