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स्या० का टीका और हिन्दी-विवेचना ]
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अश्वं विकल्पयतो गोदर्शनेऽपि तदा गोशब्दसंयोजनाभात्राद् युगपद्विकम्पद्वयानुपपत्तश्च निर्विकल्पमेव गोदशनम् इति निरस्तम् , गोशब्दसंयोजनामन्तरेणापि तदर्शनस्य निर्णयात्मकस्वात् , अन्यथा तत्स्मरणानुपपरीश्च तत्प्रकारकनिश्चयस्यैव तत्प्रकारकमंशयविरोधित्वात अन्यथा क्षणिकत्वादावपि स्मरणाऽसंशयप्रसङ्गात् ।
उत्तरकाल में जिस विषय में विधिविकल्प अथवा निषेधविकल्प इन दो विकल्पों का उत्पादन करता है उसो विषय में बह प्रमाण होता है-जैसे गोविषयक प्रध्यक्ष के बाद उस अध्यक्ष द्वारा ग्रहीत गो रूप अर्थ में 'प्रय गौः' इस विधिविकल्प का और गो मिन्न में 'अयं न गौः' इस निषधविकल्प का जन्म होने से गोग्राहि अध्यक्ष गोरूप अर्थ में प्रमाण होता है, गो से भिन्न का प्राही प्रत्यक्ष गौ से इसर रूप अर्थ में प्रमाण होता है और विकल्प वही ज्ञान होता है जो शब्दससृष्टार्थ को ग्रहण करता है । शब्द की योजना शब्दस्मरण से सम्पन्न होती है और शब्द स्मरण उस प्रर्य ज्ञान से होता है जो सम्बन्धिता. वच्छेदकप्रकारकसम्बन्धिविशेष्यक ज्ञानरूप होता है । क्योंकि, एकसम्बन्धि जान अपरसम्बन्धि का स्मारक होता है -इस न्याय से ही प्रथजान शब्दस्मरण का जनक होता है। यदि इस क्रम से अर्थ में शब्द को सयोजना न मानकर मध्यक्ष के बाद हो सीधे अर्थ के साथ शब्द को योजना मानी जायगी तो जैसे गाविषयक अनमव से मोरूप पथं में गो शब्द की संयोजना होती है उसी प्रकार निविकल्प प्रत्यक्षरूप क्षणिकत्व के अनुभव से भी निर्विकल्पक द्वारा गृहीत अर्थ में क्षणिकरव शब्द को योजना हो
लत: प्रत्यक्ष प्रमाण से ही क्षणिकत्य का निर्णय हो जाने से क्षणिकत्व के अनुमान का उत्थान न हो सकेगा।
[ शब्द योजना होन भी अध्यक्ष अर्थनिर्णायक है ] उक्त क्रम से अध्यक्षगहीत अर्थ में शब्द संयोजना मानने के विरुद्ध किसी का यह कथन कि 'अश्व के विकल्पकाल में जब गो दर्शन होता है तब एक काल में विकल्पद्वय की उत्पत्ति मान्य न होने से उस समय गोविकल्प का प्रभाव होने के कारण गो रूप प्रशं में गोशब्द का संयोजन न हो सकेगा। फलतः गो दर्शन निर्विकल्प अर्थात अनिर्णयात्मक ही रह जायगा ।मीक नहीं हैं क्योंकि गो शद की संयोजना के बिना भी गोवर्शन निर्णयात्मक होता है। यदि ऐसा न माना जायगा तो गो शब की संयोजना से हीन गो दर्शन के बाद गौ का स्मरण न होगा, क्योंकि समान प्रकारक अनुभव ही समान प्रकारक स्मरण का हेतु होता है । शब्दसंयोजनाहीन दर्शन को निर्णयात्मक न मानने पर उस दर्शन काल में समानप्रकारक अनुभव का प्रभाव होगा । शब्दयोजनाहोन दर्शन को निर्णयात्मक न मानने पर शब्दयोजनाहीन गोदर्शन के बाद गोस्वप्रकारक संशय की भी प्रापत्ति होगी, क्योंकि शब्दसंयोजनाहोन गो क दर्शन गोत्वप्रकारक निश्चय नहीं है और तत्प्रकारक निश्रय ही तत्प्रकारक संशय का विरोधी होता है । यदि इस दोष का परिहार करने के लिये स्मरण और अनुभव में समान प्रकारकस्वरूप से कार्य कारणभाव न मानकर समानविषयकत्वरूप से ही कार्यकरण मात्र माना जाय
और संशय तथा निश्रय में प्रतिबध्य-प्रतिबन्धक भाव भी समानप्रकारस्वरूप से न मानकर समानविषयकत्व रूप से ही माना जाय तो क्षणिक अर्थग्राहो निविकरुषक से भो क्षणिकस्वरूप से निर्विकल्पगृहोत अर्थ के स्मरण की तथा निविकरुपकगृहीत अर्थ में क्षणिकत्व के संशयाभाव की प्राप्ति होगी।