________________
१६०
[ शा. वा समुच्चय स्त०-४ श्लोक-११३
अथ "क्षणिकत्वादेनिर्विकल्पककवेद्यन्वात तदगृहीतकल्पयाद् न दोषः, तदाह धर्म कीर्ति:-पश्यन्नपि न पश्यतीन्युच्यते' इति न दोष" इति चेत् ? न, तच्चित्तनाशेऽपि तथात्वप्रसङ्गात् । 'तत्र विकल्पोत्पत्तन दोष' इति चेत् ? न, स्मरणस्पतदनुत्पत्तेरनुत्तरत्वात् । 'तर विस्तीर्णप्रघट्टकानुमवे मालवर्णपदाधम्मग्णवदुपपत्तिरिनि' चेत् ? न, मम विस्तीर्णप्रवकस्थले वर्णादीनां तज्ज्ञानानां च व्यक्तिमेदाद् दृढसंस्कारस्यैव निश्चयस्य स्मृतिजनक
(क्षरिणकत्व के स्मरणादि की आपत्ति का प्रतिकार-बौद्ध) बौद्ध की प्रोर से यदि यह कहा जाय कि-'मणिकत्व केवल निविकल्पक से ही वेद्य होता है प्रत एव वह अनिर्णीतसरश होता है। प्रतः क्षणिकरव के स्मरण और संशयाभाव की आपत्ति नहीं हो सकती चूकि स्मरण निर्णात का ही होता है। अंसा कि धर्मकीति ने कहा है 'पश्यन्नपि न पश्यति' प्रर्थात् “मनुष्य निर्विकल्पक प्रत्यक्ष से वस्तु को देखते हुये मी वस्तु का निर्णय नहीं कर पाता। अत: उक्त दोष नहीं हो सकता।"- तो यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि निर्विकल्पक मात्र से वेध होने के कारण यदि क्षणिकत्व अनिर्णीत माना जायगा तो उसी कारण चित्ताश यानी वर्शनांश भी अनिर्णीत होगा। फलतः जैसे निर्विकल्पक के बाद निविकल्प से गीत प्रर्य में क्षणिकत्व का संशय होता है उसी प्रकार निविकल्पक से गहोत घटादि के दर्शनांश का भी 'घटादिष्टो न वा' इस प्रकार संशय की प्रापत्ति होगी। यदि कहा जाय कि 'क्षणिकत्व का विकल्प नहीं होता किन्तु दर्शनाश का विकल्प होता है अत एव दर्शनांश निर्णीत हो जाने से उक्त बोष न हो सकता'-तो यह भी ठोक नहीं है क्योंकि उत्तर काल में दर्शनांश का मरणरूप विकल्प न होने से पूर्वकाल में दर्शनांश के विकल्प की उत्पत्ति होती है। यह उत्तर नहीं माना जा सकता, क्योंकि उत्तरकाल में जिसका स्मरण नहीं होता-पूर्वकाल में उसका निर्णयात्मक विकल्प नहीं सिद्ध हो सकता।
(पद-वर्ण को अम्मति से दर्शनांश के अनुभव का समर्थन अशक्य) यदि बौद्ध को प्रौर से इस पर यह कहा जाय कि-'जैसे प्रतिवादी के मत में प्राय के किसी विस्तीर्ण प्रकरण का जब विकल्पात्मक अनुभव होता है तो उस प्रकरण के अन्तर्गत सम्पूर्ण वर्ण-पद प्रादि का भी विकल्पात्मक अनुभव होता ही है किन्तु उसरकाल में सम्पूर्ण पदार्य का स्मरण नहीं होता है तो असे विस्तीर्ण प्रकरणघटक अनेक वर्ण और पदों का विकल्पानुभव होने पर भी उत्तरकाल में उसका स्मरण नहीं होता है किन्तु स्मरण न होने से उनके पूर्व बिकल्पानुभव का अस्वीकार नहीं किया जा सकता उसी प्रकार कालान्तर में स्मरण न होने पर भी दशनकाल में शनांश के विकल्पानुभव को उत्पत्ति का अस्वीकार नहीं किया जा सकता तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि प्रतिवादी के मत में किसी ग्रन्थ के विस्तृत प्रकरण के अन्तर्गत जो कतिपय वर्ण-पदादि का पूर्व में विकल्पानुभव होने पर भी कालान्तर में सभी का स्मरण नहीं होता है किन्तु कतिपय वर्ण और पदों का हो स्मरण होता है इस स्मरण की उपपत्ति यह मान कर की जा सकती है कि दृढसंस्कार का उत्पादक निश्चय हो स्मृतिजनक होता है । विस्तृत प्रकरण के घटक वर्णपाद और उनके शान मिन्न मिन्न होते हैं प्रस: जो ज्ञान प्रपने विषयभूत पवादि का इहसंस्कार उत्पन्न नहीं करते उनसे उनके विषयमूस पवादि का स्मरण नहीं होता । जो ज्ञान अपने विषयभूत पावि का दृढसंस्कार