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हैं । शान्त रक्षित कहता है कि असत् पदार्थ भावोत्पादक नहीं होता और सद्रपापन्न असदवस्था से आकीर्ण भी नहीं होता। इसके प्रतिकार में ग्रन्थकार का कहना है कि जब तक घट हेतुभूत मिट्टी आदि का ही घटरूप से जन्म न माना जाय तब तक शान्तरक्षित का कथन व्यर्थ है अर्थात् असत् से सदुत्पत्ति आदि दोष का निराकरण शान्तरक्षित के कपनमाष से नहीं हो सकता ।
का० ६५ में प्रथम बाधक के समर्थन के उपसंहार में व्याख्याकार ने समवायवादो नैयायिक को सकंजे में ले लिया है। 'गुणक्रिया जातिविशिष्ट बुद्धियाँ विशिष्टबुद्धिरूप होने से विशेषणसम्बन्ध (समवाय सम्बन्ध) विषयक होती है' यह नैयायिक का समवायसाधक प्रमुख अनुमान है जिसका विस्तार से पूर्वपक्ष करके पू. यशोविजय महाराज ने उसका नव्य न्याय की ही शलो में निराकरण कर दिया है।
- का०६६ से ८६ तक सामग्नीपक्ष वाले कार्यकारणभाव की समीक्षा की गयी है । यहाँ ग्रन्थकार का पानसूर यह किसान मनात रूप आलोक आदि से यदि एक रूपादिबुद्धि रूप कार्य की उत्पत्ति मानी जायेगी तो फिर कार्य वैजात्य नहीं होगा अर्थात् अलग-अलग रूपादिकार्यविशेष की उत्पत्ति नहीं हो सकेगी क्योंकि कारण अनक्य का कार्य-एकत्व के साथ स्तुल्ला विरोध है । का०८६ तक इसका सुन्दर समर्थन किया गया है ।
का०६ में बोद्ध मे जो कर्मवासना के आधार पर हेतुफल भाव का उपपादन किया था उसकी समालोचना में ८७ से ६२ कारिकाओं में वास्य-यामक भाव की अयुक्तता दीखायी गयी है । तदनन्तर हेतु-फल भाव की विचारणा में अवशिष्ट बौद्ध अभिप्रायों का निराकरण किया गया है । इसमें का० ११२ में बोषान्वय की चर्चा तथा का० ११३ की व्याख्या में-सविकल्प ज्ञान के प्रामाण्य का विस्तार से उपपादन विशेषत: मननाय है। सविकल्पज्ञान को प्रमाण न मानने पर निर्विकल्पक अध्यक्ष तथा अनुमान का प्रामाण्य ही दुरुपपाद्य है इस विषय पर उच्च कक्षा की चर्चा की गयी है । का० ११६ में निष्कर्ष रूप में दिखाया है कि कुछ विकल्प को प्रमाण मानना अनिवार्य होने से बोधान्वय की सिद्धि निर्बाध होती है एवं मनित्यत्व को सिद्धि दूर रह जाती है । का० ११७ में कहा गया है कि अनित्यत्व का निश्चय अप्रामाण्य ज्ञान से आस्कन्दित=ग्नस्त हो जाने से संदिग्ध हो जाता है । इस विषय के ऊपर पूर्वपक्ष-उत्तरपक्ष कर के विस्तृत चर्चा की गयी है। का० ११८ में बताया है कि-'मृदादि घटजननस्वभाव है। इस वाक्य के अर्थ का पर्यालोचन करने पर भी अन्वय को सिद्धि हो जाती है। का० १२१ में, कारण के अन्बय को न मानने से कार्य वैलक्षण्य की अनुपपत्ति दोखायी गयी है । का. १२३ से, अनित्यत्व में बौद्धागम का विरोध दोखाया गया है। बौदागम में एक स्थान में बुद्ध स्वयं कह रहे हैं कि उसके पश्चानुपूर्वी से ६१ कल्प में उन्होंने जो पुरुष हत्या को थी उस दुष्कृत्य के फलस्वरूप बत्तमान भव में उसको पैर में कांटा लग गया। और भी एक जगह कहा है कि यह पृथ्वी कल्पपर्यन्त स्थायी है। अन्यत्र कहा है-रूपादि पाँच स्कन्ध ज्ञानद्वय का विषय है, वस्तु को स्थिर न मानने पर इन वचनों का विरोध अवश्य है। का० १३६ की व्याख्या में द्विविज्ञेयता [=ज्ञानदय विषयता प्रतिपादक वचन की क्षणिकवाद में उपपत्ति करने के लिये बौद्ध 'घट-पटयोः रूपम' इस नैयायिक प्रयोग को उपपत्ति का सहारा लेने गया तब व्याख्याकार ने कुशलता से उस नैयायिक के प्रयोग की कटु आलोचना करके स्पष्ट कह दिया है कि वस्तु को सामान्य-विशेष उभवात्मक माने