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विना 'घट पटयोः रूपम्' इस प्रयोग की कथमपि उपपत्ति शक्य नहीं है। संग्रह नय के सहारे यह प्रयोग घट सकता है किन्तु व्यवहार नय में ऐसा प्रयोग नहीं घट सकता । जिन लोगों ने उसको घटाने का प्रयास किया है उनका खण्डन किया गया है । अन्त में बौद्ध और नैयायिक दोनों का सभ्य उपहास के साथ व्याख्याकार ने चौथे स्तबक की व्याख्या को समाप्त कर दिया है ।
प्रस्तुत विभाग के सम्पादन में प० पू० सिद्धान्तमहोदधि स्व० आचार्यदेव श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराज एवं उनके पट्टालंकार न्यायविशारद प० पू० आचार्यदेव श्री विजय भुवनभानुसुरीश्वरजी महाराज तथा उनके प्रशिष्य गीतार्थ रत्न प० पू० पंन्यासजी श्रीमद् जयघोष विजयजी गणिवर्य की महती कृपा साद्यन्त अनुवर्तमान रहो है - जिनके प्रभाव से यह चौथा स्तबक सम्पादित हो कर अधिकृत मुमुक्षुवर्ग के करकमल में सुशोभित हो रहा है- आशा है इस स्तबक के अध्ययन से एकान्तवाद का परित्याग कर अनेकान्तवाद की उपासना से हम सब मुक्तिपथ पर शीघ्र प्रयाण करें ।
संवत्सरी पर्व - वि.सं. २०३८
जैन धर्मोस्तु मंगलम्
— मुनि जयसुन्दर विजय पालनपुर ( बनासकांठा )