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[ शा० वा समुच्चय स्त. ४-श्लो० ५६
तादृशस्त्रमावककार्योत्पादाभ्युपगमे तं विनवार्थक्रियाया अपि स्वभावत एवोपपत्तौ तदुत्पादकल्पनाया अप्यक्तत्वादिति भावः । 'ऋग्ग्रहेण जन्मनि पीडिते च न भवति विभूतिः' इति ग्रहवित्तन्त्रव्यवस्था ॥५५॥
तस्यैव तदनन्तरामवनस्वभावत्वे युक्त्यभावादाकस्मिकत्वेन कार्यानुत्पत्तिषणं स्वोक्तमेव सम्मतिग्रन्थे प्राम् योजितम् । अथ चातिप्रसङ्गं सामान्यशब्देन स्वोक्तमेव तत्र योजयितुमाह-इति केचित्
वस्तुतो-घटकुर्वपत्वेन मृपिण्डदण्डादिक्षणानामेव घटहेतुत्यम् , पटकुटूपत्वेन च तन्तु वैमादिक्षणानामेव पटहेतुत्वम् , इत्यादिरीत्या नातिप्रसंग इत्यत्राप्याह
मूलं-तदनन्तरभावित्वमानतस्तवयवस्थितौ ।
विश्वस्य विश्वकार्यत्वं स्यात्तद्भावाऽविशेषतः ॥५६॥
का कहना है कि जन्मस्थान में क्रूर ग्रह होनेपर विभूति को उत्पत्ति (प्राप्ति नहीं होती है, उसी के अनुसार कार्य के जन्मस्थानमें प्रमाणाभाव राहु मी फर ग्रह के समान उपस्थित है, अतः कार्य में वजात्य का जन्म ही दुर्घट हो जायेगा । अतः उसे वैज्ञात्य रूप सम्पत्ति के लाभ की प्राशा कैसे की आयेगी ? । कहने का प्राशय यह है कि जब कार्य के वैजात्य को कारणनियम्य न मानकर स्वाभाविक माना जायेगा तब उसी प्रकार कार्यक्षणसाध्य अर्थक्रिया भी कार्यक्षरणनियम्य न होकर स्वाभाविक ही मानी जा सकेगो । फलतः प्रक्रियाप्रयोजकत्व के रूप में कार्य के सत्त्व की मान्यता भी युक्तिहीन हो जायेगी।
५६ वीं कारिका के अवतरण में दो मत हैं, कुछ पंडितों का यह कहना है कि-"बौद्ध के मत मेंवही पूबक्षणवर्ती भाव उत्तरक्षण में प्रभाव बन जाता है-इस कथन में कोई युक्ति नहीं है क्योंकि तब प्रतिनियत उत्तर क्षरण में उत्पन्न कार्य को प्राफस्मिक मानना होगा और याकस्मिक कोई कार्य होता नहीं, इसलिये कार्यकी अनुत्पत्ति प्रसक्त होगी। यह दोष प्रस्तुत ग्रन्थकर्ता ने स्वयं ही कहा है और उसमें सम्मति ग्रन्थ की सम्मति बतायी है। तथा, वैश्वरूप्याभाव का प्रतिप्रसङ्ग भी उन्होंने 'अतिप्रस इस सामान्यशब्द से स्वयं कहा है । अब उसमें भी सम्मतिग्रन्थ को सम्मति प्रदर्शित करने के लिये अग्रिम कारिका का उत्थान किया है"। किन्तु सत्य बात यह है कि इस ५६ वी कारिका का अवतरण अतिप्रसङ्ग के द्वारा पूर्वोक्त दोष का एक परिहार प्रस्तुतकरने वाले बौद्धवादी का निराकरण करने के लिये किया गया है। पूर्वोक्त प्रतिप्रसङ्ग के परिहार में बौद्ध का कहना यह है कि प्रसत्कार्यवाद में भी प्रतिनियत कार्य की व्यवस्था हो सकती है और कार्य के वैविध्य लोप का तिप्रसङ्ग भी नहीं होगा। क्योंकि मत्पिण्डदण्डादि घर के प्रति घटकुर्वद्रूपत्व से कारण होता है । अत एव उनसे उत्पन्न होनेवाला कार्य घट ही होता है। एवं तन्तु आदि क्षण भी पट कुवंद्र पत्व से पट के ही कारण होते हैं । अतः उसले उत्पन्न होनेवाला कार्य पट ही होता है। इस प्रकार कार्य-कारण भाव मानने पर न तो कार्य को विजातीयता प्राकस्मिक होगी और न तो कार्यवैविध्य लोप का प्रापादक कार्यमात्र में एक स्वभावता का प्रतिप्रसङ्ग ही होगा। इस बौद्ध कथन का परिहार का० ५६ में किया गया है..