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स्या का टीका-हिन्दी विवेचना ]
तदनन्तरभावित्वमानतः= अधिकृतकारणानन्तर्यमात्रात् , तव्यवस्थिती कार्य कारणभावसिद्धावभ्युपगम्यमानायां विश्वस्य-मकलकार्यस्य, विश्वकार्यत्वं-सकलकारणजन्यन्वं स्यात् । कुत्ता १ इत्याह-तद्भाषाऽविशेषत: तदनन्तरभावित्वाऽविशेषात् । न घनन्त. रमावि घटापेक्षयेव तादृशफ्टापेक्षयापि न मृत्पिण्डादिक्षणानां कुर्वद्रूपत्वं, येन कार्यविशेषः स्यात् । 'कार्यविशेष दर्शनात् तद्विशेषः कल्प्यत' इति चेत् ? न, व्यावृत्तिरूपस्य विशेषस्य निपेत्स्यमानत्वात् । विधिरूपत्वेऽप्यङ्करकुर्चद्रूपत्वादेः शालित्यादिना सोकर्यात् , जातिरूपस्य तस्याऽसम्भवान् , अनभ्युपगमाच्चेत्याशयः ॥५६॥ इदमेव स्पष्टयति-'विशेषकारणं विक्षिपति' इत्यपरे
मुलं-अभिमतलातादीनामसिनुमाननगात् ।
सर्वेषामविशिष्टत्वान्न तनियमहेतुता ॥५७।।
मिट्टी में पटकुर्वद्र पत्व क्यों नहीं हो सकता ? ] कारिका (५६) का अर्थ इस प्रकार है-जो जिस कार्य कर अधिकृत कारण है उसके प्रानन्तर्य मात्र के आधार पर कार्यकारणभाव की सिद्धि यदि मानी जायेगी तो सम्पूर्ण कार्य में समस्त कारण के कार्य की प्रापत्ति होगी। क्योंकि सबका प्रानन्तर्य सब में समान है। इस स्थिति में यह नहीं कहा जा सकता कि मत्पिण्डादि क्षणों में उसके अनन्तर होनेवाले घट का ही कुर्वतपत्व है और पदाधि उसके अनन्तरभावी होने पर भी पट का कुर्वपत्व उनमें नहीं है । अतः उक्त रूपसे कार्यकारण भाष की कल्पना कर कारगविशेष से कार्यविशेष के जन्म का समर्थन नहीं हो सकता।
बौद्ध को औरसे इस सन्दर्भमें यह कहा जाय कि-"मृत्पिण्डादि क्षणों से घट जैसे विशेष कार्य की उत्पत्ति और तन्तुग्रादि क्षणों से पट जसे विशेष कार्य को उत्पत्ति वेखो जातो है इसलिये मत्पिण्डादि घट कारणों में घटकुर्वपत्व और तन्तु प्राविपटकारणो में पटकुर्वद्र पत्व की कल्पना युक्तिसङ्गत है"तो यह भी ठीक नहीं हैं। क्योंकि तत्तत्कार्यकुर्बद्पत्व को प्रभाव अथवा भाव रूपमें स्वीकार नहीं किया जा सकता। क्योंकि, उसकी प्रमावरूपता का खण्डन प्रामे किया जाने वाला है और भाषरूपता उसकी इसलिये नहीं मानी जा सकती कि उसको भावरूप मानने पर जातिरूप मानना होगा और उसको जातिरूपता सांकर्य दोष के कारण सम्भव नहीं। सांकर्य दोष उसमें अत्यन्त स्पष्ट है-जैसे, शालित्व कुशूलवतॊशालिबीज में होता है उसमें प्राकरोत्पादकत्व नहीं रहता है और प्रकुरोत्पादकत्व उपजाऊ भूमि में क्षिप्त यवबीजमें रहता है किन्तु उसमें शालित्व नहीं रहता, तथा अङकुरकुर्वदूपत्व पौर शालिरव दोनों उपजाऊ भूमि में क्षिप्त शाली बीजमें होता है अतः कुर्वपस्व को जाति स्वरूप नहीं माना जा सकता । तथा, जाति की सत्ता बौद्ध को स्वीकृत भी नहीं है ।॥५६॥
५७ वी कारिकामें पूर्व कारिकाके प्रतिपाय अर्थ को हो स्पष्ट किया है। दूसरे विद्वानों का मत है कि प्रस्तुत कारिकामें बौद्ध मत खण्डन में नवोन हेतु का उपक्षेप किया गया है