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[श वा० समुच्चय स्त०४-श्लो० ५७
अभिनदेशतादीनां कारणदेशैकदेशत्वादीनाम् , आदिनाऽभिन्नजातिन्यादिग्रहः, असित्वात-क्षणिकत्वेन देशादिभेदोषपत्तेः, तथा अपरिणामित्वेनानम्वयात् सर्वेषाम् = अनन्तरभाविना कार्याणाम् सर्वाणि पूर्वभाषीनि कारणानि प्रन्यविशिद्धत्वाद् न तन्नियमहेतुना=न कार्यविशेषनियमहेतुता कारणविशेषे-इत्यक्षगर्थः ।।
देशनियमस्तथाभाविकारणानभ्युपगमे दुर्घटः, सर्वेषां घटकुळंद्र पक्षणानामेकत्राऽसवात , मृत्पिण्डक्षण देशेऽपि पूर्वध घटक्षणानुत्पत्तेश्च । न च मृद्रपघटक्षणं प्रति घरकुर्वपमृक्षणत्वेन हेतुत्वाद् नानुपपत्तिरिति वाच्यम् , दण्डादिसमाजामुद्रपघटापत्तेः । न च दण्डादीनामपि
[ निश्चित कारण से नियतकार्योत्पत्ति क्षणिकवाद में असंभव ] कारिका का अर्थ इस प्रकार है-बौद्धमत में कारण विशेषमें कार्यविशेष की नियत हेतुता' को उपपत्ति नहीं हो सकती। क्योंकि इसको उपपत्ति कारण और काय को समान देशता, समान जातीयता अथवा कार्यमें कारण का प्रन्वय होनेसे ही सम्मव होती है। किन्तु बौद्धमतमें भावमात्रके क्षणिक होनेसे कारण देश का कार्यकालपर्यन्त अवस्यान एवं कारण गत जाति का कार्यकाल पर्यन्त प्रवस्थान न होने से समान देशत्वादि प्रसिद्ध है । तथा, कारण को कार्यात्मना परिणामी न मानने से कारणमें कायका मन्बय भी प्रसिद्ध है । बौद्ध मतमें यदि सिद्ध है तो केवल इतना हो कि कार्य में कारण का प्रानन्तर्य मात्र । किन्तु इतने से ही कारण विशेष से कार्य विशेष की उत्पत्ति का नियम नहीं उपपन्न हो सकता. क्योंकि जिस कार्य व्यक्ति के पूर्व में जितने भी कारण हैं उन सभी का प्रानन्तर्य उस कार्य में समान है । प्रतः 'उसके प्रति कुछ नियत पूर्वधर्ती ही कारण हो, अन्य न हो' यह निर्धारण शक्य नहीं है ! यही है कारिका का साधारण अक्षरार्थ । कारिका के इस प्रक्षरार्थ का निष्कर्ष निम्नोक्त प्रकार से ज्ञातव्य है
[ बौद्धमत में कारणदेश में हो कार्योत्पत्ति का असंभव ] इस सम्बन्धमें बौद्ध के कथन पर विचार करनेसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि घटकुवंद्रपत्व रूपसे मृत्पिण्डादिको घटका कारण मानने पर काल नियम प्रर्थात कालविशेष में ही घटादि हप कार्य विशेष की उत्पत्ति का नियम तो उपपा हो सकता है। किन्तु देशनियम की उपपत्ति प्रर्थात् अमुक कार्य की उत्पत्ति प्रमुक देश में ही हो यह व्यवस्था नहीं हो सकती । यह व्यवस्था त भो सम्भव हो सकती थो यदि कार्यात्मना परिणमनशील कारण को सत्ता स्वीकार की जाती, क्योंकि तब यह कहा जा सकता था कि पिण्ड प्रौर घट दोनों एक ही मदव्य के परिणाम है और पिण्डात्मक परिणाम घटात्मक परिणाम के प्रति कारण है। कारण और कार्य दोनों एक हो मद् द्रव्य में प्राश्रित है इसीलिये कारण देश में कार्योत्पत्ति का नियमन हो सकता है। किन्सु क्षणिकवावी बौद्ध को यह मान्य नहीं है। प्रतः घट के जितने भी कुर्वद्रपक्षण है मत्पिण्ड-प-चक्रादि, उन सभी का कीसी एक देशमें प्रवस्थान म होने से किसी देशविशेष में ही उनसे घट रूप कार्य की उत्पत्ति का नियमन नहीं हो सकता। यदि मस्पिण्डक्षण को घटके प्रति घटकुर्वदूपत्वेन तादात्म्यसम्बन्ध से और मत्पिण्डानुयोगिक कालिक सम्बन्ध