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स्या० का टीका और हिन्दी-विवेचना ]
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रूप्याभावप्रसङ्गाच्चैव । म्वोक्तेऽथें पूर्वाचार्यसंमतिमुपदर्शयति-तथा चउक्तसदृशं च महामतिः-महामतिनामा ग्रन्थकृत आह-||५३॥ तथाहिमुलं-सधैव तथाभावि वस्तुभावारते न यत् ।।
कारणानन्तर कार्य द्राग्नमस्तस्तता न तत् ॥५४॥
सर्वथैव-कारणत्वादिपर्यायवत् तद्न्यतयापि, तथाभाविवस्तुभावाढते-कार्यकाले फलपरिणामिवस्तुमत्ता विना, कारणानन्तरं प्रतिनियतहेवव्याहतोत्तरसमये, कार्य =प्रतिनियतकार्यम् , दाग-शरित्येर, नभस्तः-आकाशात-अकस्मादित्यर्थः यतो हेतोर्न संभवेत् , ततस्तत् कार्य न भवेदेवत्थंवादिन इति भावः ।।५४ ।। एतदेव समर्थयम्नाहमल-तस्यैव तत्स्वभावत्वकल्पनासम्पदप्यलम् ।
न युक्ता युक्तिवैकल्यराहुणा जन्मपीडनात् ॥५५॥ तस्यैव-विवक्षितकार्यस्यैव, तत्स्वभावत्व कल्पनासम्पदपि स्वभावत एच कारणाऽ. नियममियाजातीयारामयपर्द्धिान्ति अगत्यर्थ! युक्ता । कुतः ? इत्याह-युक्तिवैकल्पराएगा:प्रमाणाभावरूपसहिकेयेण, जन्मपीडनात्-उन्पादस्यैव दूपणात । हेतु विनय
काररक्षण के उत्तर में होने से एक कार्य को प्राप्त होता है वही स्वभाव काररक्षण के उत्सर में होनेवाले सारे विश्वको प्राप्त होगा। फलतः सारे विश्वमें एक स्वभाव हो जानेसे कार्य वैविध्य का लोप होगा। ऐसा ही पूर्वाचाय महामति ग्रन्थकारने भी अपने अन्य में कहा है ॥५३।।
( कारण को सत्ता फलपरिणामस्वरूपकार्य के रूप में अभंग) ५४ वीं कारिका में महामति के ही कथन को प्रस्तुत किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है-यदि तप्सत्कार्यकारणम पर्याय से उपेत द्रव्य को कार्यकाल में फलात्मक परिणाम रूपमें सत्ता न मानो जायेगो, अर्थात् 'जो द्रव्य पूर्वक्षरण में तत्तत्कार्यकारणत्व रूप पर्याय से विशिष्ट हो कर रहता है वही द्रव्य उत्तर क्षरणमें कार्यात्मक परिणाम रूप पर्याय से विशिष्ट हो कर विद्यमान होता है इस सत्य की उपेक्षा की जायेगी तो प्रतिनियत हेतु के अव्यवहित उत्तरकाल में प्रतिनियत कार्य का होना प्राकस्मिक हो जायेगा । और कोई कार्य प्राकास्मक तो होता नहीं, अतः असत् कार्यवादी के मतमें कार्य की उत्पत्ति सम्भव न हो सकेगी ।।५४।।
५५ वीं कारिका में इसी बातका अन्य ढंग से समर्थन किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है-यदि बौद्ध की ओर से यह बात कही जाय कि कार्य का जात्य स्वाभाविक है। उसका कोई स्वभाव से अतिरिक्त नियामक नहीं होता। अत: एक कारणक्षण के अनन्तर होनेशले विभिन्न कार्यों की विजातीयता का मन नहीं हो सकता। क्योंकि, प्रत्येक कार्य अपने कारण से स्वभावत: विजातीयविलक्षण ही उत्पन्न होता है।'-यह बैजात्मलामरूप बोद्ध की काल्पनिक समद्धि भी कार्य को प्राप्त नहीं हो सकती, क्योंकि ऐसे कार्य का जन्म ही प्रमाणामाव रूप राह से ग्रस्त है । जैसा ज्योतिषियों