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[ शा.वा. समुच्चय त०४- श्लो० २
द्वितीयेऽप्यर्थक्रियासमर्थत्वं स्थायिनो निवर्तमानं क्षणिक एवं भावे विश्राम्यति । तथा हि- स्थायी भात्रः क्रमेण वा कार्यं कुर्यात् अक्रमेण वा १ द्वितीये एकदेव सर्वकार्योंत्पत्तिः आधे चार्थक्रियाजननस्वभावत्वे प्रागेव कुतो न कुर्यात् ? सहकार्यभावादिति चेत् ?
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( भाव की क्षणिकता में हेतुचतुष्टय )
इन हेतुओं से 'मात्र की क्षणिकता किस प्रकार सिद्ध होती है' इस बात का प्रतिपादन व्याख्याकार श्री यशोविजयजी महाराज ने अत्यन्त तर्कपूर्ण रीति से किया है। जैसे ( १ ) प्रथम हेतु-नाश कारणाभाव से भाव के स्थायित्व की सिद्धि न होने के कारण मात्र का क्षणिकत्व सिद्ध होता है । नाशकारणाभाव का उपपादन करने के लिये उन्हों ने प्रश्न उठाया है कि यदि नाश का कोई हेतु होता है तो वह किसका नाश करता ? जो भाव स्वभावतः नश्वर है उसका नाश करता है या जो स्वभावत: नश्वर है उसका नाश करता है ? इन में प्रथम पक्ष में नाश का हेतु सिद्ध नहीं होता, क्योंकि भाव जब स्वभावतः नश्वर है, नाश हो जाना उसका स्वभाव ही है तो स्वयं ही नष्ट हो जायमा प्रत: नाश के कारण को कल्पना निरर्थक । दूसरे पक्ष में भी नाश का हेतु नहीं सिद्ध हो सकता क्योंकि यदि नाव का स्वभाव अनश्वरत्व होगा तो उसे दूर कर सकना किसी के लिये संभव नहीं है। क्योंकि किसी भी वस्तु का जो स्वभाव है वह अपरिहार्य होता है। इसलिये इस पक्ष में नाश के असंभाव्य होने के कारण होगी।
यदि यह कहा जाय कि भाव का स्वभाव न नश्वरत्व हैं और न अनश्वरत्व है किन्तु कुछ कालतक स्थायित्व है । यह स्वभाव तभी उपपन्न हो सकता जब भाव का कुछ काल के बाद नाश हो । श्रतः ऐसे नाश की उत्पत्ति के लिये नाश के हेतु की कल्पना श्रावश्यक है क्योंकि नाश को श्रहेतुक मानने पर भाव का जन्म होते ही नाश हो जायगा । श्रतः कुछ काल तक स्थायित्व उसका स्वभाव न हो सकेगा। नाश को सहेतुक मानने पर जितने काल तक नाश के हेतु का संविधान न होगा उतने काल तक नाश न हो सकने के कारण माव का स्थायित्व बन सकता है अतः भाव के इस स्वभाव की उपपत्ति के लिये नाशहेतु की कल्पना सार्थक है-' तो यह वयन ठीक नहीं है क्योंकि भाव जिन कारणों से उत्पन्न होगा उन कारणों से अपने कियत्कालावस्थायित्व स्वभाव के साथ ही उत्पन्न होगा । क्योंकि वस्तु का स्वभाव नही धर्म होता है जो वस्तु के साथ होता है, बाद में प्राने वाला धर्म वस्तु का स्वभाव नहीं होता । और स्वभाव एवं वस्तु को श्रायु समान होती है। श्रर्थात् वस्तु के रहते स्वनाव की निवृत्ति नहीं होती और न स्वभाव को छोडकर वस्तु भी निवृत्त होती है। फलत भाव का freeकालावस्थायित्व स्वभाव जैसे भाव के उदयकाल में रहेगा उसी प्रकार उसके जीवनकाल यावत् अन्तकाल में भी रहेगा। तात्पर्य, भाव अपने स्वभाव से कदापि मुक्त न होगा। फलत: इस स्वभाव का पर्यवसान भाव के सार्वकालिकत्व में होगा । इसलिये नाश हेतुनों से उस स्वभाव का निराकरण संभव न होने से नाश हेतु की कल्पना निरर्थक होगी। उक्त विचार से यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है कि नाश का कोई हेतु नहीं होता इसलिए नाश के होने में किसी को अपेक्षा न होने से कोई विलम्ब नहीं हो सकता. अत एव किसी भी भाव का जब जन्म होता है तो उसके ठीक अगले ही क्षण में उसका नाश हो जाता है। इस प्रकार नाशकारणामाव रूप हेतु से भाव की क्षणिकता सिद्ध होती है।