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श्या० क० टीका और हिन्दी विवेचना ]
मूलम् - तयालुः क्षणिक सर्व नाशहेतोरयोगतः । अर्थक्रियासमर्थत्वात् परिणामात्क्षयेक्षणात् ॥ २॥
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तथाहि-ते=मौगताः आहुः प्रतिजानते । किम् ? इत्याह- सर्व क्षणिकमिति । अत्र हेतुचतुष्टयम्-नाशहेतोरयोगत इत्याद्यो हेतुः अर्थक्रयासमर्थत्वादिति द्वितीयः, परिणामादिति तृतीयः, अतादवस्थ्यादित्यर्थः, सवेक्षणादिति तुर्यः, अन्ते क्षयदर्शनादित्यर्थः ।
अाहेतुना स्थायित्वाऽसिद्ध साध्यसिद्धिः । तथाहि नाशहेतुभिर्नश्वरस्वभावो भावो नाश्येत, अशो वा ? आये प्रयासचैफल्यम् । द्वितीये तु स्वभावपराकरणस्य कतुमशक्यत्वादनाशप्रसङ्गः । कियत्कालस्थायित्वस्वभावस्यैव कार्यस्य हेतुभिर्जनने च तादृशस्वभावस्योदयकाल इवान्तकालेऽपि सच्चात् पुनस्तावन्तं कालमवस्थानाऽऽपत्तिरिति ।
कारिका में यह भी कहा गया है कि जो बुद्धमत्तानुयायो अधिक सूक्ष्मबुद्धि सम्पन्न है जैसे योगाचार, वे जगत को केवल क्षणिकविज्ञान रूप मानते हैं । उनको दृष्टि के अनुसार सम्पूर्ण जगत् विज्ञान की ही एक अवस्था है। विज्ञान से पृथक् उतका अस्तित्व नहीं है ॥ १ ॥
[age कारिका से समूचे चौथे स्तबक में सौत्रान्तिक को लक्ष्य बना कर क्षणिकवाद की ही बालोचना की जायगी। ]
(योगाचार अमित विज्ञानवाद की सालोचना पाँचवे स्तबक में प्रस्तुत की जायगी । ) ( यहाँ दूसरी कारिका से साधारणतया सौगत के क्षणिकवाद की और तीसरी काfरका में योगाचार [ सौगत विशेष ] अभिप्रेत विज्ञानवाद को पूर्वपक्ष की स्थापना को जा रही है )
बौद्ध दार्शनिकों का जगत् के सम्बन्ध में यह अभिप्राय है कि- 'सवं क्षणिक' सम्पूर्ण भाव क्षणिक =भएमात्र स्थायी = अपनी उत्पत्ति के श्रव्यवहित उत्तरक्षण में नश्वर हैं । इस श्रभिप्राय को सिद्धि के लिये ये चार हेतुत्रों का प्रयोग करते हैं। पहला हेतु नाश के कारण का प्रभाव इसका श्राशय यह है कि भाव के नाश का कोई कारण नहीं होता । अर्थात् भाव का नाश कारणनिरपेक्ष होने से भाव का जन्म होते ही नाश उत्पन्न हो जाता है। दूसरा हेतु है अर्थ किया समर्थत्व । अर्थ का तात्पर्य है भाव, क्रिया का अर्थ है उत्पत्ति और समर्थन का अर्थ है योग्यत्व। इस प्रकार भावोत्पादनसामर्थ्य ही द्वितीय हेतु है । तृतीय हेतु है परिणाम परिणाम का अर्थ है तववस्थता का श्रव । श्राशय यह है कि जननावस्था हो भाव की अवस्था होती है। जननावस्था का अर्थ है काल सम्बन्ध । भाव दूसरे क्षरण में इस अवस्था से रहित हो जाता है । प्रर्थात् काल के साथ उसका सम्बन्ध तूट जाता है । श्रथवा परिणाम का अर्थ है अन्यथाभाव । चौथा हेतु है अन्त में क्षयदर्शन । इसका अर्थ है अन्त में क्षय का प्रत्यक्ष प्राशय यह है कि किसी भी भाव का एक न एक दिन नाश अवश्य देखा जाता है । यह नाश सहसा संभव नहीं होता किन्तु जन्म क्षण से ही उसकी प्रक्रिया का प्रारंभ हो जाता है और एक दिन ऐसा आता है जब मात्र का नाश दृष्टिगोचर होता है ।