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[ शा. पा समुच्चय स्त:-४ श्लोक-१
अन्ये सौत्रान्तिकाः सौगताः सर्वचराचरम् जगत , क्लेशकर्मनिषन्धनं रागादिनिमित्तम् , तथा क्षणक्षषिप्रतिक्षणनश्वरम् , मन्यन्ते । तथा महामाज्ञा:-तेभ्योऽपि सूक्ष्मबुद्धयः परे योगाचाराः, ज्ञानमान्नं क्षणिकविज्ञानमात्रं जगद्मन्यन्ते ।।१।।
[ सौत्रान्तिक-योगाचार बौद्धमतवार्ता } प्रमथ कारिका में बौद्ध सम्प्रदाय के अस्तित्ववादी दार्शनिक दृष्टिकोण की चर्चा को गई है। अस्तिस्थवादी दार्शनिक सम्प्रवाय की दो शाखाएँ हैं। एक-बाह्यार्थ अस्तित्ववादी और दुसरी-विज्ञानमात्र अस्तित्ववादी। बाह्यार्थास्तित्ववादी को दो शाखा है-बाह्यार्थप्रत्यक्षवादी और बाह्यार्थानुमेयवादी। एवं विज्ञानास्तित्ववादी को भी दो शाखाएं है-साकार विज्ञानवादी और निराकारविज्ञानवादी। बाह्मास्तित्ववादीयों में प्रथमवाद की मान्यता यह है कि मनुष्य को ज्ञान और उसके विषयभूत पदार्थ जिसे ज्ञान भिन्न होने से बाद्यपदार्थ कहा जाता है दोनों का प्रत्यक्षानुभव होता है और उन अनुभवों को भ्रम मानने में कोई प्रमाण नहीं। अत: ज्ञान और ज्ञान से भिन्न विषय दोनों को सत्ता प्रमाणिक है। दूसरे बाद की मान्यता यह है कि मनुष्य को मुख्यरूप से अपने ज्ञान का ही प्रत्यक्ष होता है । विषय तो उस प्रत्यक्ष में ज्ञान का अङ्ग यानी विशेषण होकर मासित होता है । विषय के स्वतंत्र प्रत्यक्ष के अस्तित्व में कोई प्रमाण नहीं है, इसलिये ज्ञान और बाझविषय इन दोनों का अस्तित्व होने पर भी उन दोनों में ज्ञान ही प्रत्यक्ष है और विषय अप्रत्यक्ष है। ज्ञानके अङ्गरूप में विषय को अनुभूति होने से उस अनुभूति द्वारा विषय का अनुमान होता है । प्रतः बाह्यार्थ यह प्रत्यक्ष नहीं किन्तु अनुमेय होता है।
विज्ञानमात्रास्तित्ववादी को प्रथम शाखा का प्राशय यह है कि बाह्यवस्तु का अस्तित्व अप्रमा. रिणफ है । ज्ञान में जो साकारता का अनुभव होता है वह साकारता उसका सहज धर्म है। उसकी उपपत्ति के लिये प्रर्थात् ज्ञान को साकार बनाने के लिये ज्ञान से भिन्न विषय की कल्पना अनावश्यक है । शान और उसका आकार दोनों ही ज्ञानस्वरूप है । उसको दूसरी शाखा का अभिप्राय यह है कि मान में अनुभूत होने वाली साकारता वास्तविक नहीं है किन्तु कल्पित है । जान स्वभावतः निराकार है। प्राकार की कल्पना वासनामूलक है। प्राकार सत्य नहीं है । बाह्मार्थवादी की प्रथम शाखा सौत्रान्तिक और दूसरी वैमाषिक कही जाती है। द्वितीयवादो को दोनों शाखाएं योगाचार के नाम से प्रसिद्ध है।
[ भाव को क्षणिकता में हेतुचतुष्टय ] प्रस्तुत प्राद्यकारिका में इन्हीं बातों का सूक्ष्म संकेत करते हुए कहा गया है कि कुछ बुद्धानुयायी सौत्रान्तिकादि वादिजन सम्पूर्ण जगत् को श्लेशकर्ममूलक मानते हैं । क्लेशकर्म का अर्थ है राग, द्वेष, मोह । 'क्लेशः वुखम् कर्म-कार्यम् यस्य' इस व्युत्पत्ति से क्लेश का जनक होने के कारण रानादि को क्लेशकर्म शब्द से व्यवहृत किया जाता है । जगत् को रागादिमूलकता अन्य समो पुनजन्मवादी दर्शनों को मान्य है। इसलिये उनसे इस मत में अन्तर बताने के लिये यह भी कहा गया है कि जगत् क्षणविनाशी है । अर्थात जगत् का प्रत्येक भाव अपनी उत्पत्ति के प्रव्यवहित उत्तरक्षरण में ही नष्ट हो जाता है। किसी भी भाव का दो क्षण के साथ सम्बन्ध नहीं होता।