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स्या० क० टीका-हिन्दीविवेचना ]
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न च तत्र शाखासमवायोभयमेव संबन्धः न तु समवायस्य संबन्धत्वे शाखावच्छे दिकेति वाच्यम्, शाखावच्छेदेन समवायसंबन्धावच्छिन्नसंयोगाभावग्रहेऽपि ' शाखायां संयोग' इति बुद्धयापत्तेः, तत्र शाखासमवायोभयसंबन्धावच्छिन्नसंयोगाभावग्रहस्यैव विरोधि स्वात् तत्रोक्ताभावग्रहप्रतिबन्धकत्वस्यापि कल्पने गौरवात् । अस्तु वा 'इदानीं पटाभाव: ' इत्यत्रापि तत्कालवैशिष्ट्योभयसंबन्धेन पाभाव एव विषय इति न किञ्चिदनुपपन्नम् । न च समवायेन जन्यभावत्वावच्छिन्नं प्रति द्रव्यत्वेन हेतुत्वात् तत्सिद्धिः, कालिकविशेषणताभिन्नवैशिष्ट्येनैव तदुपपत्तेः ।
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में पाभाव के प्रत्यक्ष को आपत्ति होगी क्योंकि उस काल में भी भूतल, उसके साथ पटाभाव का वंशिष्ट्य सम्बन्ध और प्रत्यन्ताभाव के नित्य होने से पटाभाव ये तीनों ही विद्यमान होते हैं । इस प्रत्यक्षापत्ति का परिहार यह कह कर नहीं किया जा सकता कि 'भूतल में पट सकाल में पटामानाधिकरणत्व स्वभाव नहीं रहता, इसलिये उस समय मूतल में पटाभाव के न रहने से उसके प्रत्यक्ष को प्रापत्ति नहीं हो सकती क्योंकि पट के प्रसत्त्वकाल में भूतल मैं पटाभाव प्रत्यक्ष के अनुरोध से पटामावाधिकरणत्व को भूतल का स्वभाव मानना श्रावश्यक है और स्वभाव यावव् प्राश्रयभावी होता है इसलिये पट सरवदशा में भी सूतल में पटाभावाधिकरणत्य स्वभाव होना अनिवार्य है। पाक से श्याम घट रक्त हो जाने पर घट में उस दशा में श्यामरूपाधिकरणत्व स्वभाव रहता है किन्तु श्यामरूप नहीं रहता । श्रतः उस दशा में श्याम रूप का प्रत्यक्ष नहीं होता क्योंकि लौकिक प्रत्यक्ष के लिये विषय का सद्भाव प्रावश्यक होता है ।
( कपिसंयोग के दृष्टान्त से उक्त प्रपत्ति का परिहार - जैन )
किन्तु नैयायिक का यह उत्तर प्रयास मो निरयक है क्योंकि संपूर्ण प्रभावों का वैशिष्ट्य नामक एक सम्बन्ध मानने पर भी भूतल में पट सत्त्वदशा में पटाभाव के प्रत्यक्ष की प्रापति का परिहार सरलता से हो सकता है । यह कहा जा सकता है कि जैसे वृक्षों में कपिसंयोग का समवाय शाखा. वच्छेदेन वृक्ष के साथ कपिसंयोग का संबन्ध होता है मूलावच्छेदेन नहीं होता है और इसलिये शाखावच्छेदेन कपिसंयोगवाला भी वृक्ष मूलाबच्छेदेन कपिसंयोगवाला नहीं होता। उसी प्रकार वैशिष्ट्य के विषय में भी यह कहा जा सकता है कि जिस काल में पट होता है उस काल में वंशिष्ट्य भूतलावच्छेदेन पटाभाव का सम्बन्ध नहीं होता इसलिये उस काल में 'भूतले पटो नास्ति' इस प्रकार का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता। इसके प्रतियाद में यदि नंयायिक का ओर से यह कहा जाय कि 'वृक्ष के साथ कपिसंयोग का शाखा और समवाय दोनों सम्बन्ध होता है, समवाय की संसर्गता स्वरूपसम्बन्ध से और शाखा की संसर्गता प्रवच्छिन्नत्व सम्बन्ध से होती है, किन्तु समवाय के कपिसंयोग सम्बन्धत्व में शाखा प्रयच्छेदक नहीं होती है। अतः समवाय के दृष्टांत से वैशिष्ट्य में घटाभावादि सम्बन्धत्व के श्रव्याप्यवृत्तित्व की कल्पना नहीं हो सकती' तो यह ठीक नहीं हैं क्योंकि ऐसा मानने पर वृक्ष में 'शाखावच्छेदेन समवायसम्बन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताक कपिसंयोगाभाव के प्रत्यक्ष काल में भी 'शाखायां वृक्षः कपिसंयोगी' इस बुद्धि को आपत्ति होगी, क्योंकि शाखा प्रौर समवाय दोनों को afaiयोग का सम्बन्ध मानने पर उस बुद्धि में शाखा समवाय उमयसम्बन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताक