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स्वा० क० टीका-हिन्दी विवेचना ]
तादिग्राहकम् - अतीत यत्परिच्छेदकम् सद्भिः पण्डितैः इष्यते । न च वर्तमानक्षणग्रहे पूर्वापरयोदर्शनादेवाभावग्रह इति शङ्कनीयम् दृश्याऽदर्शनस्यैवाभावग्राहकत्वात् ||२७||
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प्रस्तुतोपचयमाह
मूलम् - अन्तेऽपि दर्शनं नास्य कपालादिगतेः क्वचित् । भावी जावखेन प्रतीतितः ||२८||
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अन्तेऽपि = विभागमन्तत्युत्पत्तावपि अस्य = घटाऽसच्यस्य क्वचिद् दर्शनं न । कुतः इत्याह- कपालादिगतेः = कपालादेरेव परिच्छेदात् । 'कपालाद्येव घटाभावः स्यात् इत्याहन तदेव - कपालाद्येव घटाभावः = घटाऽसत्वम् । कुतः ? इत्याह भावत्वेन प्रतीतितः = सच्चेनाऽनुभवात् न चास सवेनानुभूयते ||२८||
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प्राय यह है कि माय की उत्पत्ति के क्षण में उसका प्रसस्व नहीं रह सकता इसलिए असत्त्व का ग्रहण नहीं हो सकता । द्वितीय क्षण में प्रसस्त रहता है किन्तु भाव नहीं रहता इसलिए मायके प्रसत्त्व का ग्रहण नहीं हो सकता । क्योंकि इन्द्रिय द्वारा 'विशिष्ट' ग्रहण करने के लिए 'विशेष्य-विशेषण' दोनों का वर्तमान होना श्रावश्यक है । इसमें यह शङ्का हो सकती है कि "वर्तमान क्षण के ग्रहण काल में उसके पूर्वक्षण का और उत्तर क्षण का दर्शन नहीं होता इसलिए इस प्रदर्शन से हो दोनों के प्रभाव का ग्रहण हो सकता है। अतः यह कहना व्यर्थ है कि उत्तरक्षण में भावी प्रसत्त्व का पूर्वक्षण में ग्रहण नहीं हो सकता" - किन्तु यह ठीक नहीं हैं, क्योंकि दृश्य का प्रदर्शन ही प्रभाव का ग्राहक होता है, वर्तमान क्षणके ग्रहण कालमें पूर्व और उत्तरक्षण दृश्य नहीं होते । श्रत एव उस कालमें उसके प्रदर्शन को दृश्य कर प्रदर्शन नहीं कहा जा सकता । क्योंकि कोई वस्तु दृश्य उसी समय मानी जाती है जब उसका दर्शन होता है अथवा उस वस्तु और उस वस्तु के साथ इन्द्रियसन्निकर्ष ईन दोनों से प्रतिरिक्त उस वस्तु के दर्शन के सम्पूर्ण कारण विद्यमान होते हैं। जैसे घटशून्य भूतल में प्रालोक का सविधान और चक्षु का संयोग रहने पर घट दृश्य माना जाता है किन्तु श्य होते हुए भी उसका प्रदर्शन होता है । अत एव उस प्रदर्शन से उसके प्रभाव का ग्रहण होता है। वर्तमान क्षण के ग्रहण काल में पूर्वोत्तर क्षणका न तो दर्शन होता है न तो उनके दर्शन के इतर कारण तत्कालीन दृष्टा श्रादि विद्यमान होते हैं। अत एव उस समय उन्हें दृश्य नहीं कहा जा सकता । इस लिये उस समय का उन का प्रदर्शन दृश्य का प्रदर्शन न होने से, उनके प्रभाव का ग्राहक नहीं हो सकता ||२७||
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सत्त्व का दर्शन नहीं होता)
२८ वीं कारिका में पूर्वोक्त अर्थ का ही समर्थन किया गया है। कारिका का श्रयं किसी भी भाव के, उसके अन्त में भी प्रर्थात् उसके विसदृश सन्तान का प्रारम्भ होने पर भी उसके प्रसत्य का दर्शन किसी को नहीं होता । क्योंकि उस समय भी असदृशसन्तानवर्ती किसी भाव का हो वर्शन होता है । जैसे घट का ध्वंस होने पर घट के विसदृश कपाल के सन्तान का प्रारम्भ होने पर कपालादि का ही दर्शन होता है, घटके प्रसस्य का नहीं। यदि यह कहा जाय कि 'उस समय दृश्यमान कपाल ही घटाभाव है । प्रत एव ओ कपाल का दर्शन होता है वह घटाभाव का ही दर्शन है।' तो यह ठीक नहीं हो