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[शा. वा.समुच्चय स्त०-४ श्लोक २६-२७
प्रस्तुतमेव समर्थयतिमूलम्-स्वभावक्षणतो ह्य वं तुच्छता तन्निवृत्तितः ।
नासाचेकक्षणग्राहिज्ञानात् सम्यग्विभाव्यते ॥२६॥ स्वभावक्षणतः स्वसत्ताक्षणात् , ऊ=अग्रिमक्षणेषु, हि=निश्चितम् , तुच्छतान्तदसव. रूपा । कुतः ? इत्याह-तनिवृत्तितः भाषनिवृत्त्यभ्युपगमात् । यत एवम् , अत्तो नामो-तुम्छता, एकक्षणग्राहिज्ञानात् सम्यम् विभाव्यते-न्यायतो निश्चीयते, तदा तुच्छनाया असत्वेन तदननुभवादिति भावः ॥२६।। ततः किम् ? इत्याइ
मूलम्-तस्यां च नाऽगृहीतायां तत्तथेति विनिश्चयः।
न होन्द्रियमतीतादिग्राहकं सद्भिरिष्यते ॥२७|| तस्यां च द्वितीयादिक्षणाऽस्थितिरूपायां तुच्छतायाम् अग्रहीतायां सत्याम् , तद्-वस्तु तथा क्षणस्थितिघर्षकम् इति न विनिश्चयः, तच्वेन विनिश्चयस्य द्वितीयादिक्षणाऽस्थितिग्रहणसापेक्षत्वात् । न च तद्ग्रहोऽपीन्द्रियेणेव भविष्यति, इत्याह-न हीन्द्रियं-चक्षुरादि, अती
प्रसत्त्व का निश्चय होता है, जैसे बीजसन्तान से अइन्कुरसन्तान का प्रारम्भ होने पर बीज के प्रसत्त्व का निश्चय होता है । यदि बीज सन्तान के अन्त्यबीजक्षरसननुभव में बीज के प्रसत्त्वनिश्चय को उत्पन्न करने को शक्ति नहीं मानी जायेगी तो प्रकरसन्तान का प्रारम्भ होने पर बीज के प्रसत्त्व का निश्चय नहीं हो सकेगा । यदि ऐसा नहीं माना जायेगा तो पूरे अनुभव में गृहीत अर्थ के निश्चय को उत्पन्न करने की शक्ति का सम्मव होने से प्रतिप्रसङ्ग होगा। प्रर्थात् नील वस्तु के ग्रहण से पोत निश्चय की उत्पत्ति की प्रापत्ति होगी ॥२५॥
२६ वौं कारिका में असत्त्व का ग्रहण प्रसम्मय है इस बात का प्रतिपादन किया गया है। सुच्छता यानी भावना असत्य वह भाव के सत्ताक्षण में नहीं होता किन्तु उस क्षण के अग्रिम क्षण में भाव की निवृत्ति मानी जाती है। इसलिए भावक्षण को ग्रहण करने वाले ज्ञान से तुच्छता का निश्चय न्यायसङ्गत नहीं है, क्योंकि उस समय तुच्छता यानी भसत्त्व के न होने से उसका अनुभव ही नहीं होता है ॥२६॥
(तुच्छता के अग्रह से क्षरिपकत्व निश्चय का असंभव) २७ वों कारिका में तुच्छताग्रहण की सम्भाव्यता बतलाने का परिणाम बताया है। जैसे, द्वितीयादि क्षणो में भावको अविद्यमानता यानी तुच्छता का ग्रहण सम्मव नहीं होता, इसलिए भावमें क्षणिकत्व का निश्चय नहीं हो सकता, क्षणिकर के निश्चय के लिए द्वितीयावि क्षणमें असत्त्व का ज्ञान अपेक्षित होता है । यदि यह कहा जाय कि-"भावक्षण में भी उसके असत्त्व का इन्द्रिय से ही ग्रहण हो जायेगा या द्वितीयादि क्षण में भाव के प्रसस्त्र का इन्द्रिय से ग्रहण हो जायेगा"-तो यह कथन उचित नहीं हो सकता। क्योंकि चक्षुनावि इन्द्रिय अतीत और प्रनागत को ग्राहक नहीं होती-यही विद्वानों का सिद्धान्त है।