________________
स्था का टीका-हिन्दीविवेचना ]
[ १०५
एतेन प्रसङ्गाभिधानेन यन् व्युदस्तं तदभिधातुकामः प्राहमलं-एतेनैतत्प्रतिक्षिप्तं यदुक्तं सूक्ष्मबुडिना ।
नासतो भावकत त्वं तदवस्थान्तरं न सः ॥१९॥ एतेन अनन्तरोदितप्रसङ्गेन, एतत्वक्ष्यमाणम् , प्रतिक्षिप्तम्-अपाकृतम् , यदुक्तं सूक्ष्मबुद्धिना-कुशाग्रीयधिया शान्तरक्षितेन । किमुक्तम् ? इत्याह-नासत्तः तुच्छस्य कारणस्य भावकर्तृत्वं-वस्तुजनकत्वं येन शशशृङ्गादेरपि जनकत्वप्रसङ्गः स्यात् । तथा, सः उत्पद्यमानो भावः तदवस्थान्तरं न=सद्रूपापन्नासदवस्थाक्रान्तो न, येन शशशृङगेऽपि सवस्थापादनेन हेतुल्यापारोपवर्णनं सफलं स्यात् ।।५।।
कार्यतावच्छेदक सम्बन्ध से कार्य और कारणतावच्छेदक सम्बन्ध से कारण के संयुक्त होनेवाले एकदेश में विद्यमान होनेसे धूमक्रिया और धूमोपसर्पण में भी समान देशत्व का नियम अक्षुण्ण है। यदि अग्नि से उत्पन्न दूर तक फैले हुए धूम को देखकर यह कल्पना की जायेगो कि मग्नि से धूम की उत्पत्ति में समानदेशप्ता अपेक्षित नहीं है, तो काशी स्थित अग्नि से प्रयाग में भी धूम उत्पन्न होने को प्रापत्ति होगी। प्रतः कार्य-कारण में समान वेशता का नियम मानना प्रावश्यक है। यदि यह कहा जाय कि"जैसे अन्य देश में अवस्थित लोहचुंबक देशान्तर में स्थित लोह का प्राकर्षण करता है अर्थात् एकवेशस्थ लोहचुंबक से वेशान्तरस्य लोहमें प्राकर्षण क्रिया उत्पन्न होती है-तो जैसे उनमें समान वेशत्व न होने पर भो हेतुहेतुमद्भाव होता है उसी प्रकार अन्य हेतु कार्यों में मो कल्पना को जा सकती है," तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि इस कल्पना में प्रतिप्रसंग है। काशीस्थ अग्नि में प्रयागीय धूमोत्पादन शक्ति की कल्पना कर प्रयागीयधूम इस अग्नि से क्यों न उत्पन्न हो? ऐसो प्रापत्तियों का परिहार अशक्य है। इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि लोहचुबक और लोहाकर्षण में भी समानदेशत्व का प्रभाव नहीं है। क्योंकि लोहचबक में लोहाकर्षण शक्ति होने से ही उसके द्वारा लोहका प्राकर्षण होता है। तथा, तत्तत्कारण में विद्यमान तत्तत् कार्य की शक्ति सूक्ष्म तत्तत्कार्य रूप ही होती है। इस प्रकार यहां भी कार्य कारण में समानवेशस्थ अक्षुण्ण है। कार्य-कारण भावमें समानदेशत्व का नियम होने के कारण ही यह माना जाता है- कि तैल चाहने वाले मनुष्य तिल मादि में तेल के अस्तित्व का निश्चय करने पर ही तिल आदि का संग्रह व उसका पेषण, करने में प्रवृत्त होते है। प्रत: बौद्ध का पूर्वोक्त कथन सर्वथा अकिञ्चितकर है । कारणविशेष से कार्यविशेषकी नियतवेश और नियत कालमें उत्पत्ति को व्यवस्था सम्बन्ध में विचार करने की यही संगत विशा है ।।५८।।
[ शान्तरक्षित के 'असत् पदार्थ वस्तुजनक नहीं होता'-कथन की व्यर्थता]
कार्य-कारण में समानदेशत्व का नियम न मानने पर दूरदेशयती कारण से कार्योत्पत्ति के प्रसङ्ग का जो श्रापादन पूर्व कारिका में किया गया उससे प्रकृत में किसका प्रतिक्षेप होता है इस बात को ५६ वो कारिका में दिखाया गया है । कारिका का अर्थ इस तरह है
उक्त प्रसङ्ग-प्रापादन से तत्वसंग्रह के कर्ता शान्तरक्षित के कथन का निराकरण होता है। शान्तरक्षित का कथन यह है कि तुच्छ वस्तु किसी भाव को जनक नहीं होती है प्रतः शशशृङ्गादि के