________________
१०६ ]
[ शा.धा. समुच्चय स्त०४-०६०-६१
किं तर्हि तम् ? इत्याह
मूलं वस्तुनोऽनन्तरं सत्ता कस्यचिद्या नियोगतः ।
सा तत्फलं मला व भावोत्पत्तिस्तदात्मिका ॥ ६० ॥
वस्तुनः = अग्न्यादेः अनन्तरं सत्ता कस्यविद् = धूमादः नियोगतः नियमेन या, सा तत्फलं तस्यानन्तरस्याग्न्यादेः कार्यम् मता = दृष्टा, तस्याः कथमुत्पत्तिः ? इत्याह संव= सत्ता भावोत्पत्तिः, उत्पन्त्युत्पत्तिमतोरभेदात्, तदात्मिका - भावात्मिकैव नान्या । ततः सत्ताया एवं जनकत्वात् कथमसज्जनकत्वेनातिप्रसङ्गोद्भावनं युक्तम् १ इत्याशयः ॥ ६० ॥
ननु यद्येवम्, तहिं कथम् 'असत उत्पत्तिः' इत्युच्यते ? इत्यत आह
मूलं - असदुत्पत्तिरप्यस्य प्रागसत्त्वात् प्रकीर्तिता । नासनः सत्वयोगेन कारणात्कार्यभावतः ॥ ६१ ॥
जनकत्व की प्रापत्ति नहीं हो सकती। एवं उत्पन्न होनेवाला भाव सपापन्न होने पर प्रसदवस्था से प्राक्रान्त नहीं रहता, इसलिये शशशृङ्ग में मी सदयस्था के प्रापावान के लिये कारण व्यापार के वर्णन की सफलता नहीं हो सकती । प्राशय यह है कि न तो शशशृङ्ग में जनकत्व का आपादान किया जा 'सकता है, न तो अभ्यत्व का श्रापादान हो सकता | जनकत्व का प्रापादान इसलिये नहीं हो सकता कि वह तुच्छ होता है और तुच्छ कभी किसीका कारण नहीं होता। क्योंकि पूर्व भाव जो उत्तरभश्व का कारण होता है वह सत्त्व प्राप्त करके ही कारण होता है। इसी प्रकार शशशृङ्ग आदिमें उत्पन्न होने बाले भाव के दृष्टान्त से, जन्यत्व का भी प्रापादान नहीं हो सकता। क्योंकि उत्पद्यमान भाव और शशशङ्ग प्रावि के असत्त्व में तुल्यता नहीं है। उत्पन्न होनेवाला भाव उत्पत्ति के पूर्व में प्रसद् श्रवश्य होता है किन्तु उत्पत्ति कालमें सद् रूप को प्राप्त करने पर प्रसवस्या ग्रसद्रूप से श्रीकान्त नहीं रहती । शशशृङ्ग सम्बन्ध में इस प्रकार कारणव्यापार सफल नहीं हो सकता क्योंकि उसकी अवस्था अस द्रूपता कभी निवृत्त नहीं होती। वह सर्वदा तदवस्थ हो रहती हैं || ५६ ॥
[ कारण के बाद कार्यसत्ता - भावोत्पत्ति और भाव सब एकरूप है ]
६० वीं कारिका में शान्तरक्षित के मत से वस्तु की उत्पत्ति और अवस्तु की अनुत्पत्ति के रहस्य का उपपादन किया गया है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है-अग्नि श्रादि वस्तु के बाद धूम आदि की जोवियत सत्ता मानी जाती है उस सत्ता को ही भाव को उत्पत्ति मानी जाती है। उत्पत्ति और उत्पत्तिमान में कोई भेद नहीं होता । भावको उत्पत्ति भावात्मक हो होती है उससे भिन्न नहीं होती । इसलिये सत्ता में ही जनकत्व की मान्यता होने के कारण असत् में जनकत्व के प्रतिप्रसङ्ग का उद्भावन एवं सत्ता ही उत्पत्तिरूप होने से प्रसद् में जन्यत्व के अतिप्रसङ्ग का उद्भावन युषितसङ्गत नहीं हो सकता । प्रसत् में जनकत्व का शब्दलभ्य उद्घावन असद् में जन्यत्व के आपावान का भी उपलक्षण है । प्रत: उसके भी प्रापादान की सम्भाव्यता की बात कह दी गई है ॥ ६० ॥
६१ वीं कारिका में इस प्रश्न का उत्तर दिया गया है कि जब उत्पत्ति सत्तारूप है तो फिर यह उत्पत्ति के पूर्व असत् पदार्थों को कंसे हो सकती है ? क्योंकि असत् का सत्तायोग विरुद्ध प्रतीत होता है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है