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[ शा० वा० समुच्चय स्त०४- श्लो०५८
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योsपि क्वचिदेकस्य धूमादेः अन्यतः = अग्न्यादेः सकाशात् भावो अभूत्वा भावः, अन्यदा=उत्पादादुद्ध्यं संताने दृश्यते, क्षणयोर्न व्यावहारिकं ग्रहणमिति संतानग्रहणम् सोऽपि विदेशस्थात् देशान्तरस्थितात्, तत एव =अग्न्यादेरेव यद्यस्मात् तत् = तम्मात् न पाघको नियतकल्पनाया अयम् इत्यक्षरार्थः ।
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अयं भावः – तत्कार्यजननशक्तिमदेव कारणं तत्कार्यजनकम्, देशनियमस्तु स्वभावादेव दूरस्थेनापि बह्निना दूरस्थ मजननदर्शनादिति परस्याशयः । सोऽयमयुक्तः, वह्निना स्वममीपदेश एवं धूमोत्पादादनन्तरं तदुपसर्पणस्याऽपि तत्तत्क्रियादिहेतु देशनियत देशत्वात् अन्यथा काशीयो वह्निः प्रयागेऽपि धूमं जनयेत् । न च लोहोपलस्याsसनिक लोहा कर्षकत्ववदन्यत्राऽपि तथाकल्पनम् अतिप्रसङ्गात् । शक्तिरपि सूक्ष्मकार्यरूपैव अत एव तिलाद तेलसद्भावं निश्चित्यैव तैलार्थिनस्तत्र प्रवर्तन्ते इति न किश्चिदेतदिति दिक् ॥ ५८ ॥
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सन्तान में 'अन्य से' - श्रन्यवेशयत कारण से देशान्तरवर्ती कार्य का अभवनपूर्वक भवन देखा जाता है. जैसे बह्नि सन्तान से घूम सन्तान की उत्पत्ति सर्वविदित है। इस प्रकार जब देशान्तरवत्त काररण से अन्यदेशयत्त कार्य को उत्पत्ति होती है तो कारण और कार्य में समानदेशत्वामाय कारणविशेष से कार्य विशेष के उत्पत्ति नियम का बाधक नहीं हो सकता । यद्यपि, देशान्तरवर्ती कारण से देशान्तरवत्त कार्य की उत्पत्ति एक सन्तानान्तगत पूर्वोत्तरक्षणों में भी मान्य है किन्तु उसे प्रत्यवादी के प्रति दृष्टान्त रूपमें प्रस्तुत नहीं कया जा सकता, क्योंकि उन क्षणोमें एकदेशयस से देशान्तरवर्ती के भवन का व्यावहारिक [ व्यवहार योग्य ] ग्रहण नहीं होता, किन्तु सन्तान में होता हैं, जैसे - वह्निसन्तान और धूमसन्तान में स्पष्ट दृष्ट है। इसी लिये कारिकामें सन्तान द्वारा ही इस बात का कथन किया गया है। कारिका का यह सामान्याक्षराथ है ।
[ स्वभाव से हो देशविशेष का नियम संभव- बौद्ध ]
मूलकार ने शब्दतः बौद्ध के अभिप्राय को प्रस्तुत किया है और तात्पर्यतः उसके खण्डन का सङ्केत किया है जिसे व्याख्याकार ने स्पष्ट किया है जो इस प्रकार है- बौद्धके कारिका-श्रक्षरलभ्य उक्त कथन का श्राशय यह है कि जिस कारणमें जिस कार्यके उत्पादन की शक्ति होती है उसी से उस कार्य कि उत्पत्ति होती है । कारविशेष [ में कार्यविशेष ] के उत्पादन शक्ति की कल्पना कारण विशेष से कार्य विशेष को उत्पत्ति के दर्शन के आधार पर की जाती हैं। इस कल्पना से सब कारणों से सब कार्यों की उत्पत्तिप्रसङ्ग का वारण हो जाता है। रह जाती है बात कार्य देश के नियम की । श्रर्थात् 'कारण विशेष से कार्यविशेष की उत्पत्ति किस देश विशेष में हो ?' इसका उपपादन शेष रह जाता है, जिसे स्वभावाधीन मानना ही उचित है। अर्थात्, कोई कार्य किसी देश विशेषमें स्वभावविशेष से ही उत्पन्न होता है । कार्यस्वभाव से अतिरिक्त अन्य किसी नियामक की पेक्षा नहीं है। क्योंकि दूरस्थ श्रग्नि से दूरस्थ धूम की उत्पत्ति देखी जाती है ।
व्याख्याकार की समानदेश में ही धूमको
[ सम्मान देशता का नियम अभंग है- जैन ] दृष्टि में बौद्ध का यह कथन युक्तिसङ्गत नहीं है। क्योंकि अग्नि भी अपने उत्पन्न करता है। उत्पत्ति हो जाने के बाद धूमका उपसर्पण अर्थात् घूम का