________________
स्या० ० टीका-हिन्दी विवेचना ]
[ १५३
वास्यवासकभावाच्चन्नतत्तस्याप्यसंभवात् ।
असंम्भवः कथं न्वस्प, विकल्पानुपपतितः ॥८८|| पर आह-वास्यवासकभावात् स्वकृतवेदनं युज्यते, 'स्वत्रासककृतं स्वेन भुज्यते' इति नियमात् स्ववासककृते स्वकृतत्वव्यवहाराच्च । अत्रोत्तरम् इति चेत् ? नतदेवम् ,
तस्यापि वास्यबासकमावस्यापि असंभवात् । पर आह-'नु' इति चित,कधमस्य:वास्यबासकभावस्य, असम्भवः । अत्रोत्तरम्-विकल्पानुपपत्तित: विकल्प्यमानस्य सतस्तत्वनीत्याऽघटमानत्वात् ॥८८||
वासकाद्वासना भिन्नाभिन्ना * वा भवेणदि ।
भिन्ना स्वयं तया शून्यो नैवान्यं वासयत्यसौ ।।८९|| तथाहि-वासकात सकाशाद् वासना भिन्ना वा भवेत् , अभिन्ना वा १, इति द्वयी गतिः । तत्र यदि वासका वासना भिन्ना, तदा स्वयं तया शून्योऽसौ वासका क्षण: नैवान्यं बासयेत् , अन्पक्षणाऽविशेषात् ॥६॥
८८ वीं कारिका में उक्त अनुपपत्ति के विरुद्ध बौद्ध अभिमत समाधान को प्रस्तुत कर उसके निराकरण का संकेत किया गया है
[ वास्य-वासक भाव में विकल्पों को अनुपपत्ति ] उक्त सम्बन्ध में बौद्ध की यह मान्यता है कि पूर्वोत्तर कर्तृ और मोक्तृक्षणों में वास्य-वासक भाव होता है और उसी के बल पर स्वकृत कर्मों का फलोपमोग होता है। अर्थात् जो जिस से वासित होता है वह उस के किये कर्मों का भोक्ता होता है और उसका किया हुमा कर्म मोक्तृकृत कहा जाता है ।
कहने का प्राशय यह है कि "जब कोई क्षणजीवी प्राणी कोई शुभ या अशुभ कर्म करता है तो उन कर्मों का भला या बुरा संस्कार पुण्य-पाय उत्पन्न होता है, जिसे वासना कहा जाता है। इसी से उस कर्ता प्राणी के उत्तर क्षण में उत्पन्न होनेवाला दूसराप्राणी वासित हो जाता है । इसप्रकार यह संस्कार उत्पत्ति के माध्यम से प्रवाहित होता हुया उस क्षणजीवी प्राणो तक पहुंचता है जिसे उन कर्मों का फल भोग होता है । एवं उन कर्मों के फल का भोक्ता होने से ही उसे उन कर्मों का मोक्ता और उन कर्मों को उसो के द्वारा किया हुआ माना जाता है" । बौद्धों के इस कथन का उत्तर देते हुए ग्रन्थकार ने यह कहा है कि-भाव मात्र के क्षणिकता पक्ष में वास्य-वासक माय भी सम्भव नहीं है । यदि बौद्ध प्रश्न करे कि ऐसा क्यों ? तो इसके उत्तर में ग्रन्यकार ने सम्मायित पक्षों की अनुपपत्ति को बताया है। अर्यात् यह कहा है कि माव को क्षणिकता पक्ष में वास्य-वासक माव की उपपत्ति के लिये जो भी विकल्प सम्भावित हो सकते हैं-युक्तिपूर्वक उस का उपपावन प्रशक्य है ।।८।।
८६ यों कारिका में पूर्वकारिका में संकेतित अनुपपत्ति का उपपादन किया गया है --
* क्रियमाणेऽत्र संधी सप्ताक्षरत्वप्रसङ्गेन छन्दोहानि:, संधेरविधाने च संहितैकपदबत् 'पादेन्तिवजम्' इति काध्यसमयातिकमः इति 'मा वाभिन्ना' इति पाटपचेत् स्यात् सुसंगतः स्यात् ।