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[ शा. या. समुच्चय स्त० ४ श्लो०८७ अभ्युपगम्यापि हेतु-हेतुमद्भावं दोषमाह
नानात्यायाधनाच्चेह कुतः स्वकृतवेदनम् ? ।
सत्यप्यस्मिन्मियोऽत्यन्तत दादिति चिस्यताम् ॥८॥ च-पुनः इह-मणिकत्वपक्षे सत्ययस्मिन्-हेतु हेतुमद्भावे पूर्वोत्तरक्षणरूपकत. भोक्त्रोः, मिथ: परस्परम् , अन्वयाभावेनाऽत्यन्तभेदात् , स्वकृतवेदनम् स्वार्जितहिताहित. का फलानुभवः कुतः ? इति चिन्त्यताम्-माध्यस्थ्यमवलम्ब्य विमृश्यताम् ।।८७॥
उक्त युक्ति से सामग्री को अपेक्षा कार्य कारण भाव नहीं बन सकता । इसलिये सामग्री की चर्चा मो कोरी चर्चा ही है । अतः वह मो प्रकृतपक्ष-असत् कार्थवाद एवं भायमान के क्षरिएकतावाद की साधक नहीं हो सकती ।।६।।
८७ वी कारिका में कार्य कारण क्षणों में विशेष रूप से कार्य कारण भाव का अभ्युपगम करने पर भी बौद्ध पक्ष में दोष प्रशित किया गया है
(विशेष रूप से कार्य कारण भाववादी बौद्ध के मत में दोष) बौद्धबादी:-अव्यवहित पूर्वोत्तरक्षणों में विशेष रूप से कार्य कारण भाव का हम अभ्युपगम करते है और इस अभ्युपगम में यह युक्ति है कि उपधेय-उपधायक वस्तुओं में विशेष रूप से कार्यकारण माव प्राय: सभी स्थिश्वावियों को भी मानना प्रावश्यक होता है । अन्यथा, केवल सामान्य कार्य: कारण भाव के बल से ही विशेष कारण से विशेष कार्य की उत्पत्ति मानने पर यह प्रश्न ऊठ सकता है कि जिन तन्तु व्यक्तियों से एक पट व्यक्ति की उत्पत्ति होती है उन तन्तु व्यक्तियों से दूसरे पट व्यक्तियों की उत्पत्ति क्यों नहीं होती ! क्योंकि पटत्व-तन्तुत्व रूप से कार्य कारण भाव के आधार पर समी तन्तु में सभी पट की जनकता सिद्ध होती है। इस प्रश्न के उत्तर में यही कहना होगा की तत्तत्पर के प्रति तत्तत्तन्तु को विशेषरूप से कारणता है। प्रतः केवल सामान्य कार्य कारण भाव के बल पर उक्त आपत्ति नहीं ऊठायी जा सकती। अतः इस विशेष कार्य कारण भाव का ज्ञान कैसे हो सकता है-इस प्रश्न का उत्तर देने का मार केवल बौद्धों पर ही नहीं किन्तु कार्य कारण वादो सभो दार्शनिकों पर है और यह उत्तर यही है कि विशेष कारण के रहने पर विशेष कार्य का उदय और विशेष कारण के प्रभाव में विशेष कार्य का अनुवय इस प्रकार विशेष कार्य-कारणों में अन्वययतिरेक ज्ञान से विशेष कार्य कारण भाव का ज्ञान होता है । मले यह कार्य कारण मात्र कार्यार्थी के कारणोपादान में प्रवृत्ति का नियामक न हो किन्तु इसके होने में बाधा नहीं है । अत एव जो वोष बौद्ध पक्ष में दिया गया वह उचित नहीं है ।"-बौद्ध के इस अभ्युपगम को दृष्टिगत रखते हुये ग्रन्थकार का यह कहना है कि-क्षणिकत्वपक्ष में विशेष रूप से कार्य कारण भाव सम्भव होने पर मो पूर्व क्षण रूप कर्ता और उत्तरक्षणरूप भोक्ता में प्रत्यन्त भेद होगा, क्योंकि उनमें प्रत्यन्त भेव का बाधक किसी प्रकार का अन्वय क्षणिकत्ववादी के मत में नहीं होता और जब कर्ता और भोक्ता में प्रत्यन्त मेद होगा तो कर्ता को अपने अजित शुभ अशुभ कर्मों के फल का अनुभव कैसे हो सकेगा ? इस विषय पर तटस्थ होकर बौद्ध को विचार करने की प्राथश्यकता है । तात्पर्य यह है कि बौद्ध मत में इस प्रश्न का समाधान सम्भव न होने से वह मत उपादेय नहीं हो सकता ॥२७॥