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स्या० क० टीका-हिन्दीविवेचना ]
[ १५१
विभिन्नार्यजस्वभावाशक्षणातयः
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यदि ज्ञानेऽपि भेदः स्वान्न चेद् भेदो न युज्यते ॥ ८५ ॥ दोषान्तरमाह - विभिन्न कार्य जननस्वभावाश्रक्षगदयः कारणविशेषा यदीष्यन्ते तदा तज्जन्ये ज्ञानेऽपि भेदः स्यात् । न चेद् भिन्नकार्यजनन स्वभावत्वं तदा रूप- बुद्धयादेरपि भेदो न युज्यते । 'प्रत्येक' विभिन्नकार्यजननस्वभावत्वादयमदोष' इति चेत् न, तथाप्येकत्र कार्ये प्रत्येकं विभेदापत्तेः ||२५|| प्रस्तुतपक्षमुपसंहरति
सामग्रयपेक्षयाप्येवं सर्वथा नोपपद्यते । यहेतुहेतुमद्भावस्तदेषाऽप्युक्तिमात्रकम् ॥८६॥
सर्वथा हेतुहेतुमद्भाव
एवम् उक्तयुक्त्या सामाग्रयपेक्षयापि, यद्यस्मात् कारणात्। नोपपद्यते, तत् = तस्मात् एषा =साममयपि, उक्ति मात्रकं प्रकृतपसाऽसाधिका ॥८६॥
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[ चक्ष आदि में भिकार्य जननस्वभाव होने में प्रपत्ति ]
बौद्ध चक्षु-रूप-प्रालोकादि को अपने सन्तान में चक्षु-रूप श्रादि का जनक और अन्य सन्तान में बुद्धि का जनक मानते हैं । अतः उनकी मान्यता का यह निष्कर्ष है कि चक्षु-रूप प्रावि कारणों में विभिन्न कार्यों को उत्पन्न करने का स्वभाव है। फलतः उनके मत जन कारणों से उत्पन्न होने वाला ज्ञान भी एक न होकर विभिन्न हो जायगा। प्रर्थात् उनसे एक ज्ञानव्यक्ति को उत्पत्ति न होकर विभिन्न ज्ञानव्यक्तियों की उत्पत्ति का प्रसंग होता । यदि इस प्रापत्ति के भय से वे चक्षु रूप आदि में विभिन्न कार्यों को उत्सन्न करने का स्वभाव मानना अस्वीकार कर देंगे तो इसका अथ होगा कि उन कारणों में प्रभिन्न काय को ही उत्पन्न करने का स्वभाव है और उनसे उत्पन्न होने वाले रूपबुद्धयावि में मी भेद न हो सकेगा ।
इसके उत्तर में बौद्ध की ओर से यदि यह कहा जाय कि चक्षु रूप प्रादि में विभिन्न जातीय एक कार्य को उत्पन्न करने का स्वभाव है अतः न अनेक ज्ञानों की उत्पत्ति का प्रसंग होगा और न रूप-बुद्धि आदि में एकजातीयता का ही प्रसंग होगा । अतः उक्त दोष को श्रषसर नहीं मोल सकता' तो यह कथन भी ठीक नहीं, क्योंकि कारण में विभिन्न जातीय एक-एक कार्य को उत्पन्न करने का स्वभाव माना जायगा तो प्रत्येक कार्य में भी विभिन्नजातीयता की प्रसवित होने से भिन्नता की श्रापत्ति होगी और उसका पर्यवसान या तो श्रनेकान्तवाद में होगा या तो शून्यवाद में होगा ।
कहने का आशय यह है कि यदि कारण भिन्न जातीय कार्य को उत्पन्न करेंगे तो उनसे जो भी कार्य उत्पन्न होगा उनमें विभिन्न जातियां होगी, जैसे उन कारणों से रूप एवं ज्ञान उत्पन्न होता है। तो ये दोनों उमयजातीय होंगे अर्थात् रूप ज्ञानजातीय होगा और ज्ञान रूपजातीय होगा क्योंकि ऐसा मानने पर ही उनमें मिश्रजातीयता होगी । ऐसो स्थिति में यदि उन जातियों में कश्वित् अविरोध मान कर उन जातीयों से अनुविद्ध एकैक कार्य व्यक्ति को सता मानी जायगी तो अनेकान्तवाद का प्रसंग होगा और यदि उन जातियों में सर्वथा विरोध ही होगा तो दोनों जातियाँ किसी भी एक कार्य व्यक्ति में नहीं बैठ सकेगी। फलतः शून्यवाथ का प्रसंग होगा ६५॥
६६ वीं वारिका में ६६ वीं कारिका द्वारा प्रस्तुत सामग्री पक्ष का उपसंहार किया गया है—