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[ शा.बा समुच्चय स्त० ४.लो०५४ .
जनकत्व व्यवहार लोकसिद्ध नहीं है प्रतः उसमें प्रगन्धजनकव्यावत्ति रूप निमित्त की कल्पना करके गन्धजनकत्य की कल्पना न्याय संगत नहीं हो सकतो"-तो यह ठीक नहीं है
[ अरूपजनक व्यावृत्ति प्रादि रूपसे कारणता का प्रसंभव ] क्योंकि बुद्धि प्रादि के साथ रूपादि का अन्वय-यतिरेक ज्ञान रूपत्वादि धर्मों से ही है । अर्थात् 'रुपे सति बद्धि रूपं च अश्यते-रूपेऽसति ते न जायते' इसी प्रकार का प्रन्वयव्यतिरेक झान होता है, इसलिये बुद्धि प्रादि के प्रति रूप प्रावि को रूपत्वादि धर्मों से ही कारणता मानना उचित है. मरूपजनकल्यावृत्ति प्रयवा अबुद्धिजनकच्यावृत्ति रूपेण कारणता उचित नहीं है । क्योंकि उक्तव्यावृत्तियां प्ररूपजनक और अबुद्धिजनक प्रादि जो साध्य ज्ञान उनको सापेक्ष होने से दुर्जेय है । दूसरी बात यह है-यदि उक्त ध्यात्तियों में काल्पनिक कारणतावच्छेदकत्व को माना जायगा तो कारणता-अंश में प्रविश्वास हो जायगा । तात्पर्य यह है कि कारणता का ज्ञान कारणतावच्छेदक के ज्ञान के प्रधान होता है प्रत:कारणतावच्छेदक का ज्ञान प्रगर काल्पनिक होगा तो कारणता का भी ज्ञान काल्पनिक ही होगा। इसलिये रूपक्षण में रूप और बुद्धि प्रादि को कारणता मी काल्पनिक हो जायगी. क्योंकि पाप के मत में स्वलक्षण यथार्थ वस्तु के सम्बन्ध के बिना भी कल्पना हो सकती है। अत: रूपक्षण से असम्बद्ध होने पर भी कारणता कल्पित हो सकती है । यदि स्वलक्षण वस्तु के साथ कारणता के सम्बन्ध की उपपत्ति करने के लिये स्वलक्षण के साथ व्यावृति विशेष का भी सम्बन्ध माना जायगा तो स्वलक्षणवस्तु में व्यावृत्तिभेदों द्वारा अनुगत किये हुए अनेकक्षणवृत्तित्व का सम्बन्ध हो जायगा। फलतः स्वलक्षण वस्तु में अनेकक्षणसम्बन्ध रूप स्थायित्व को प्रसक्ति होने से क्षणिकत्व सिद्धान्त को हानि हो जायगो । प्राशय यह है कि बौद्ध को स्थलक्षण सत्य वस्तु को क्षणिकता अर्थात् एकक्षणमात्र का सम्बन्ध ही मान्य है अनेक क्षणों का सम्बन्ध मान्य नहीं है । काल्पनिक रूपजनमध्यावति प्रादि से स्वलक्षणरूप क्षण में प्ररूपजनकत्व मान्य होता है उसी प्रकार प्रतद्ववृत्तिव्यावृत्ति अर्थात् तद्वस्तु से भिन्न वस्तु के प्रधिकरण क्षरण में वर्तमान तडिन्न का मेव' रूप से स्वलक्षण तवस्तु में अनेकक्षणत्तित्व मानकर स्थिरत्व का पापादान हो सकता है। किन्तु जिस स्वलक्षण बस्तु में जिस क्षण का सम्बन्ध मान्य है उस क्षण और उससे भिन्न अनेक क्षणों में एक व्यावृत्ति भेव-एक प्रतवघ्यावृत्ति मान कर यह कहा जा सकेगा कि स्वलक्षण तद्वस्तु में प्रतद्वयावृत्तक्षरवृत्तित्वरूप अनेकक्षणवृत्तित्व है जो बौद्ध को मान्य नहीं हो सकता, क्योंकि क्षरणों का कोई अनुगमक धर्म मान्य न होने से स्वलक्षणवस्तु में बौद्धको प्रननगतक्षण का सम्बन्ध हो स्वीकार्य है।
इसके अतिरिक्त यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि कारणक्षण और कार्यक्षरणों का मिन्न भिन्न च्यात्तियों से अनुगम करके कार्य-कारण भाव बनाने पर उन व्यावत्तियों से अनुगत होने वाले प्रव्यबहित कार्यक्षणों और कारणक्षणों को ग्रहण कर और उन व्यावृत्तियों से अनुगत होने वाले व्यवहित कार्यक्षण और कारणक्षरण का विनिर्मोक स्याग कर कायंक्षण और कारणक्षणों में उत्पाद्य-उत्पादक मात्र की कल्पना में कोई विनिगमना नहीं हो सकेगी क्योंकि प्रत्यहित कार्यकारण क्षणों में विशेष रूप से कार्यकारणभाव के शान का कोई विनिगमक नहीं हो सकेगा क्योंकि प्रध्यवाहित कार्यकारण क्षणों में विशेष रूप से कार्यकारणभाव के ज्ञान का कोई उपाय नहीं है। यदि उत्पाध-उत्पादक व्यवितों से विशेष रूप से कार्यकारणभावग्रह का कोई उपाय होता तो यह कार्य कारण भाव ही उनके उत्पा-उत्पादक माब में विनिगमक हो जाता, किन्तु ऐसा कोई उपाय नहीं है ।1८४॥
बौद्ध के साथ प्रस्तुत चर्चा में ८५ वी कारिका में बौद्ध के प्रति एक अन्यदोष बताया गया है