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स्था०० सीमा-हिन्दीविरेषना ]
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सत्त्वस्य निवृत्तिस्तुच्छा, असत्त्वस्य त्वतुच्छेति । तथा, बुद्धिभेदाच्च-सत्त्वे 'अस्ति' इत्येव घुद्भिः, असत्वे च 'नास्ति' इति विभाव्यताम्-विमृश्यताम् , विरुद्धधर्माध्यासस्यैव भेदकस्वात् , अन्यथा नीलपीतादीनामपि भारत्वेन भेदो न स्यादिति । एवं तावदभिहितः परपक्षेऽनिष्टप्रसङ्गः ॥३१॥
अर्थतेन यदपाकृतं तदुपन्यस्यन्नाह-- मूलम्-एतेनैतत्पतिक्षिप्तं यदुक्तं न्यायमानिना ।
न तत्र किञ्चिद् भवति न भवत्येव केवलम् ॥ ३२॥ एतेन-अनन्तरोदितेन प्रसङ्गदोषेण एतत् प्रतिक्षिप्तं यदुक्तं न्यायमानिना=तर्कावलिप्तेन धर्मकीर्तिना । किं तदुक्तमिति सार्धकारिकाद्वयमाह-न तत्र वस्तुनि क्षणाचं किश्चिद् भवति वस्तुशब्दवाच्यम् । किं तर्हि तत् ? इत्याह-केवलं न भवत्येव-प्राक्क्षणे भवनशीलं तदेव न भवति, अन्यथा तन्नाशायोमादित्यर्थः ॥३२॥
ननु तद् घटाभवनं यदि घटस्वभावम् अनीदृशं का ? उभयथापि घटाप्रच्युत्तिा, घटबभावनाशकाले घटस्याऽपि सम्वात् , घटाऽस्वभावेन नाशेन घटस्वरूपाप्रच्युतेश्च' इत्यादिदोषोपनिपातः कथं वारणीयः १ इत्यत आह
इसका उत्तर कारिका में इस प्रकार दिया गया है कि सत्व-असत्य में उत्पत्ति और विनाश का साम्य होने पर भी उनमें ऐक्य नहीं हो सकता है । क्योंकि प्रसत्त्य तुच्छ है. सत्त्व अतुच्छ है । प्रतः तुमछाऽतुच्छ में ऐक्य सम्भावना नहीं हो सकती । उन दोनों को निवृत्ति में भेद है अर्थात् सत्त्व की निवृत्ति तुच्छ है और असत्य की नित्ति अतुम्छ है । उनको प्रतीतियों में भी भेद है जैसे, सत्त्व को 'प्रस्ति रूपमें प्रतीति होती है और असत्त्व को 'नास्ति' रूपमें प्रतीति होती है। तो इस प्रकार सत्व और असत्त्व में जब अनेक विरोधी धमों का समावेश है, तो उनमें अभेद को कल्पना नितान्त प्रयुक्त है। क्योंकि यदि विरुद्ध धर्माध्यास होने पर भी भेद न मान कर ऐक्य माना जायगा तो नोल पीतादि रूप में भी भावत्वरूपसे साम्य होने के कारण उनमें भी भेद न होकार ऐक्य हो जायेगा। इस प्रकार अब तक को युक्तियों से बौद्ध के सिद्धान्त में अनिष्टापत्ति का प्रदर्शन किया गया है ॥३१॥
(पंडितमानी धर्मकीति के मत का उपक्रम) ३२ वीं कारिका में उस बात को बताया गया है जो बौद्ध पक्ष में प्रनिष्टापत्ति के उद्धायन से फलित होती है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है
अभी तक जिस अनिष्ट प्रसङ्ग का उद्भावन किया गया है उससे ताकिकता के दर्द से प्रवलिप्त न्यायवादो धर्मकोत्ति के कथन का निराकरण हो जाता है । धर्मकोत्ति का कथन (पूर्वपक्ष) ३२ वीं कारिका के उत्तराध और प्रप्रिम ३३-३४ वीं दो कारिका में प्रस्तुत है । प्रस्तुप्त कारिका के उत्तरार्ध का तात्पर्य यह है कि किसी भी वस्तु का उसको उत्पत्ति क्षण के बाद ऐसा कुछ नहीं होता जिसे बस्तु